ध्यान और धारणा में अंतर
ध्यान की परिभाषा –
"तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम"
जहां चित्त को लगाया जाए, उसी में वृत्ति का एक तार चलना ध्यान कहलाता है। जिस ध्येय वस्तु में चित्त को लगाया जाए उसी में वृत्ति का एकतार चलना एवं चित्त का एकाग्र हो जाना ध्यान है। अर्थात एक ही तरह की वृत्ति का प्रवाह चलना उसके बीच में किसी दूसरी वृत्ति का ना उठना ध्यान है।
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि मनुष्य को ध्यान लगाने के लिए संतुलन की आवश्यकता होती है उसे संतुलन का पालन करने वाला होना चाहिए।
जिसके जीवन में संतुलन नहीं है वह ध्यान को नहीं लगा सकता । ध्यान लगाने के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह संतुलन का पालन करें । तभी वह ध्यान लगाने में सफल हो सकता है ध्यान लगाने का उद्देश्य परमात्मा से संपर्क करना है
धारणा की परिभाषा –
"देश बंधस्य चित्तश्य धारणा"
किसी देश, , किसी मूर्ति, व्यक्ति विशेष को आदर्श समझ कर उसको मन में सोचना ही धारणा है । धारणा विचारों का ही समूह है उसी ध्यान में आगे बढ़ते रहना, अवरोध पैदा ना होने देना धारणा कहलाती है।
जहां चित्त को लगाया जाए उसी में वृत्ति का एकतार चलना इसी अवस्था में बने रहना, कोई भी अवरोध पैदा ना होने देना धारणा है । धारणा आपके ध्यान में कन्वर्ट हो जाती है । धारणा और ध्यान एक दूसरे के पूरक हैं। ध्यान लगाने के लिए हमें ध्यायता और ध्येय दोनों की आवश्यकता होती है ।
ध्यान- किसी साधन के द्वारा वहां पहुंचा जाएगा ध्यान साधना है।
धारणा- ध्यान लगाने का साधन धारणा कहलाता है बिना धारणा के ध्यान नहीं लगाया जा सकता।
ध्यायता- ध्यान करने वाले व्यक्ति को ध्यायता कहा जाता है।
ध्येय- जिस लक्ष्य के लिए ध्यान लगाया, जो काम किया जा रहा है, मुझे कहां तक पहुंचना है, समाधि के प्राप्त करने, जब प्राप्त कर ली ,किससे लक्ष्य के लिए ध्यान किया ,यह सब धेय कहलाता है।