बंध और मुद्रा

बंध –

बंध का अर्थ होता है बांधना, रोकना या संकुचित करना । इस क्रिया के द्वारा किसी अंग विशेष को बांधकर आने जाने वाली संवेदनाओ को रोक कर लक्ष्य विशेष की ओर भेजना बंध है। मानसिक एवं आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करने के लिए बंधो का विशेष महत्व है।

स्वात्माराम जी ने हठ प्रदीपिका में कुंभक की अवधि बंधो को अनिवार्य माना है। बंधो में आंतरिक अंगों की मालिश होती है रक्त का जमाव दूर होता है यह अंग विशेष से संबंधित नाडियो के कार्यों को नियमित करता है शारीरिक कार्य एवं स्वास्थ्य में उन्नति होती है

बंध के प्रकार

बंध चार प्रकार के होते हैं।

  1. जालंधर बंध
  2. मूलबंध
  3. उडिड्यान बंध
  4. महाबंध

कुंभक के अभ्यास में सर्वप्रथम मूल और जालंधर बंध का उपयोग होता है और रेचक के समय उडिड्यानबंध का उपयोग होता है।
किंतु अभ्यास करने पर मानसिक व आध्यात्मिक लाभ की प्राप्ति के लिए कुंभक अवधि में ही उडिड्यानबंध का भी नियमित रूप से अभ्यास किया जाता है।

मुद्रा किसे कहते है –

                                      "मुद्र आनंद राति लाति ज्ञात मुद्रा"

अर्थात आनंद की प्राप्ति जिससे हो उसे मुद्रा कहते हैं । चित्र को प्रकट करने वाली किसी विशेष भाव को मुद्रा कहते हैं । कुछ श्रेणी के नृत्यो में मुद्रा हाथों की विशेष अवस्था है जो आंतरिक भागों निया संवेदनाओं का संकेत कराती है।

मुद्रा का अर्थ –

मुद्रा संस्कृत शब्द के “मुद्र”धातु से बना है जिसका अर्थ है आनंद की प्राप्ति । राघव भट्ट के अनुसार मुद्रा प्रदर्शन देवताओं को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है।

मुद्रा के प्रकार

स्वात्मा राम जी के अनुसार मुद्राओं को 10 भागों में बांटा गया है

  1. महामुद्रा
  2. महाबंध
  3. महावेद
  4. खेचरी
  5. उडिड्यानबंध
  6. मूलबंध
  7. जालंधर
  8. विपरीत करनी
  9. व्रजोलीमुद्र
  10. शक्ति शालिनी

मुद्रा के उद्देश्य-

आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से मुद्रा एवं बंध का उद्देश्य कुंडलिनी शक्ति का जागरण बताया गया है। योग साधना का मुख्य उद्देश्य भी यही माना गया है इसके अतिरिक्त आंतरिक साधना में नियंत्रण करें । साधक अपने शरीर की अंतः स्रावी ग्रंथियों को प्रभावित करता है जिसके श्रव से साधक शारीरिक एवं मानसिक सुदृढ़ हो जाता है । मुद्रा के अभ्यास में स्थिरता की बात घेरंड संहिता में कही गई है ।

" मुद्राया स्थिरता चैव "

मुद्रा के अभ्यास से स्नायु संस्थान को वश में करके इच्छुक ऊर्जा की उत्पादन एवं प्रयोग करके स्थिरता का भाव प्राप्त किया जा सकता है । मुद्रा का भाव साधक को अपने गुणों के अनुसार ही ढाल लेता है।

मुद्राओं के अभ्यास की तैयारी-

मुद्राओं के अभ्यास से आसन प्राणायाम बंधो का अभ्यास भली प्रकार से आवश्यक है । प्राणायाम में पूरक रेचक कुंभक के सही अनुपात का अभ्यास आवश्यक है। नाड़ी शोधन प्राणायाम का अभ्यास 3 से 4 माह तक करना आवश्यक है।
आसन प्राणायाम एवं बंधो के अभ्यास दृढ़ होने पर हठ योग की मुद्राओं का अभ्यास करना चाहिए।

मुद्राओं के अभ्यास में सावधानियां –

मुद्रा का अभ्यास करते समय खासकर ललाट को भूमि पर सटाते समय पीठ को झटके से ना झुकाऐ । आरंभ में अभ्यास धीरे-धीरे शुरू करें । आरंभ में 5 से 10 सेकंड तक ही अंतिम स्थिति में रुके । तत्पश्चात धीरे-धीरे समय को बढ़ाते जाएं शुरू में अभ्यास को 3 से 5 बार दौहराऐ है ।

मुद्रा के लाभ –

  1. इसके अभ्यास में मध्य पटेल पेशी सबल होती है।
  2. उधर स्थित सभी अंग अपने स्थान पर बने रहते हैं।
  3. नाड़ी संस्थान सबल होता है।
  4. कोष्ट बधता कम करने में सहायक होता है प्रजनन अंग संबंधी रोगों में लाभदायक होता है।
  5. कुंडलिनी शक्ति के जागरण में सहायक है।

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