शिव संहिता शिव तत्व को प्राप्त करने वाली संहिता है। शिव संहिता में 5 अध्याय का वर्णन किया गया है।
- प्रथम अध्याय = लय प्रकरण
- द्वितीय अध्याय= तत्वज्ञान
- तृतीय अध्याय= योगाभ्यास नाड़ी शोधन
- चतुर्थ अध्याय= मुद्राएं
- पंचम अध्याय = चतुर्थ विद्य योग
शिव संहिता में शतचक्र की अवधारणा है। शिव संहिता में 4 आसन बताए गए हैं।
- सिद्धासन
- पद्मासन
- पश्चिमोत्तानासन
- स्वास्तिक आसन
शिव संहिता में प्राणायाम
प्राणायाम = शिव संहिता में प्राणायाम के तीन अंग बताए गए हैं पूरक कुंभक और रेचक अनुपात 1/4/2 नाड़ी शोधन प्राणायाम का वर्णन शिव संहिता में किया गया है।
शिव संहिता में मुद्राएं और बंध
शिव संहिता में शिव जी ने 10 मुद्राओं का वर्णन किया है जिसमें से छह मुद्राएं चार बंध बताए गए हैं।
- महामुद्रा
- महावेद
- खेचरी।
- विपरीत करनी मुद्रा
- वृजोली मुद्रा
- अमरोली मुद्रा, सहजौली मुद्रा ,शक्ति चालिनी मुद्रा
- उड़ियान बंध
- महाबंध
- जालंधर बंध।
- मूलबंध।
शिव संहिता में वर्णित ध्यान
शिव संहिता में प्रतिको उपासना का वर्णन है प्रतीक का अर्थ है लिंग या चिन्ह । यह सदैव अपने से या किसी अन्य का घोतक होता है । यहां पर ज्योति शब्द नाद आत्मा के अर्थात स्व् के प्रति कहे गए शब्द है।
उपासना का अर्थ है ध्यान एवं अंतोगत्व (जहां पर उसका अंत हो जाए और गमन हो जाए) समाधि भगवान शिव माता पार्वती को प्रतीकों पासन के विषय में कहते हैं के प्रति उपासना दृष्टया अदृश्य फल देने वाली है तथा उसके दर्शन मात्र से ही उपासक उपासना करने वाले पवित्र हो जाते हैं इसमें विचार ने की कोई बात नहीं है इस अभ्यास के स्थूल स्तर पर दो स्तर बताए गए हैं।
पहला प्रारंभिक दूसरा उत्तर प्रारंभिक अवस्था में सर्वप्रथम सह प्रतीक उपासना की जाती है। प्रचंड धूप में खड़े होकर अपनी छाया जिसमें अपनी उपाधि नामरूप रहित को नेत्रों से निहारना और देखे हुए स्वं प्रतीक के प्रतिबिंब का आकाश में दर्शन किया जाता है।
दर्शन होने के उपरांत उत्तर अवस्था में छाया में बैठकर कुंभक तथा शांभवी मुद्रा के साथ देखें तो हम प्रतीक का ध्यान करते हैं। जिसमें आत्मा लक्ष्मण स्वरूप ज्योति दर्शन प्राप्त होता है आत्मा दर्शन होने पर ऐसा ज्ञान हो जाता है कि मैं ही आत्मा हूं इसीलिए वह स्वयं को आत्मा से धन्य नहीं मानता इस अवस्था में निरंतर अभ्यास से नाद की अनुभूति होने लगती है।