समाधि:-
समाधि की स्थिति में मनुष्य आत्मज्ञान या आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करता है। तब उसका भी यही अर्थ होता है कि अंत तक ध्यान अवस्था तक केवल अपने भीतर के अशुद्ध तत्वों को शुद्ध करने तथा कर्मों को निर्मूल करने का प्रयास चल रहा है और इस प्रयास के क्रम में, जब हम ऐसी अवस्था को प्राप्त करते हैं , जहां पर मनुष्य द्वारा संभव सभी कार्यों को हम देख चुके हैं और कुछ शेष नहीं रहा। तब ज्ञान की प्राप्ति या आत्म साक्षात्कार होता है।
जीवन में सभी परिस्थितियों, कर्मो, व्यवहार और जीवन पद्धति को ऋषि-मुनियों ने दो भागों में विभक्त किया है। प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग । प्रवृत्ति मार्ग स्वयं को भुलाने का मार्ग है और निवृत्ति मार्ग स्वयं को पहचानने का मार्ग है। प्राकृतिक नियमों के अनुसार जैसे-जैसे हम विषयों में लिप्त होते हैं। भोग मार्ग में आगे बढ़ते हैं प्रवृत्ति मार्ग में आगे बढ़ते हैं, वैसे वैसे स्वयं की चेतना छोड़ते जाते हैं।
यह अनुभव हम अपने जीवन के साधारण कार्यों में कर सकते हैं। सभी शास्त्रों और ग्रंथों में जिस अवस्था को ब्रह्म ज्ञान के नाम से जाना जाता है वह स्वयं में समाधि की स्थिति है। क्योंकि ब्रह्म शब्द की उत्पत्ति ब्रह्म धातु से हुई है, जिसका अर्थ होता है विकसित होना। चेतना के विकास के क्रम में जिन नए आयामों की जानकारी और ज्ञान मनुष्य प्राप्त करता है उसे ब्रह्म ज्ञान कहते हैं।
भगवत गीता के अनुसार समाधि का वर्णन
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ।।2.54।।
समाधि की परिभाषा देते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि समाधि ऐसी स्थिति का नाम है जहां पर मनुष्य बंधन मुक्त, जहां पर राग, द्वेष, छल, कपट, अयोध्या आदि सांसारिक बंधन मनुष्य को प्रभावित नहीं करते और वह जीवन की हर परिस्थिति में समभाव धारण किए रहता है। उस समभाव में उसे बराबर की स्वतंत्रता प्राप्त होती है, पुण्य कर्मों में भी और पाप कर्म में भी समाधि की वह स्थिति आत्म शुद्धि की स्थिति है।