नादानुसंधान

नादानुसंधान

योग साधना में मन के लाभ का सर्वोत्तम साधन नादानुसंधान माना गया है। नाद की उत्पत्ति स्थान मणिपुर चक्र माना गया है। नाद का सामान्य अर्थ ध्वनि तरंगों से किया गया है। यह ध्वनि तरंगे शरीर के भीतर की तरंगे हैं, जिन्हें योगी महसूस करता है।

आदि गुरु शंकराचार्य अपने ध्वनि को नाद के साथ एकाकार करके नाद की उपासना प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि नादानुसंधान तुम्हें नमस्कार है। क्योंकि तुमसे मेरा मन प्राण सहित विष्णु लीन हो जाता है। नाद का अनुसंधान साक्षात्कार ओम स्वरूप शब्द ब्रह्म प्राप्ति की उपासना है।

नादानुसंधान से अनाहत ध्वनि का श्रवण होता है। यह ध्वनि तरंगे अनाहत ध्वनि तरंगें हैं। अनाहत ध्वनि तरंगों का अभिप्राय बिना आधार उत्पन्न किए ध्वनि रंगों से है। जब नाद पूर्ण हो जाता है तब ईश्वर की अनुभूति होती है। अतः नाथ से समाधि की स्थिति होती है।

नादानुसंधान के द्वारा समाधि प्राप्त करने वाले योगियों के हृदय में आनंद उत्पन्न होता है जिस प्रकार फूलों के रस का पान कर भवर उसकी गंध की उपेक्षा नहीं रखता। उसी प्रकार नाद में लीन चित् बाह्य विषयों की अपेक्षा नहीं रखता। परमात्मा के इस ध्वनि प्रतीति को नादानुसंधान कहते हैं।

नाद का स्वरूप- नाद शब्द ना+द दो शब्दों से मिलकर बना है । ना अर्थात नाकार का अर्थ है प्राण, द अर्थात दकार का अर्थ है शक्ति से है ।

नाद के प्रकार

शास्त्रों में नाद को दो प्रकार से विभाजित किया गया है। पहला आहत नाद ,दूसरा अनाहत नाद।

आहत नाद

किसी हलचल टकराहट या बाह्य यंत्र वाद्यों पर आघात करने से प्रकट होने वाली ध्वनि को आहत नाद कहते हैं। अर्थात वह स्वयं उत्पन्न नहीं होता बल्कि उसको उत्पन्न किया जाता है। मन को स्थिर करने में आहत नाद ही सहायक होते हैं । जो साधक को अनाहत नाद की ओर ले जाते हैं । लेकिन यह सब स्थूल साधन है जो साधक का चित् एकाग्र करने में सहायक है।

अनाहत नाद

अनाहत नाद अपने स्वरूप से स्वयंभू उत्पन्न होता है स्वयं की चेतना या ब्रह्मरंध्र से देविक संपर्क में जो ध्वनियां उत्पन्न होती हैं उन्हें अनाहत नाद के रूप में माना गया है । प्रणव के रूप में अनाहत नाद प्रकट होता है यह नाद संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है।

नादानुसंधान की चार अवस्थाएं

नाद की अवस्थाएं चार प्रकार की होती हैं 1 आरंभावस्था 2 घटावस्था 3 परिचयवस्था 4 निश्पतियावस्था।

आरंभावस्था

इस अवस्था में ब्रह्म ग्रंथि अनाहत चक्र के भेदन स्वरूप आनंद का अनुभव होता है। जिससे शरीर में असाधारण अनाहत शब्द सुनाई देता है। जिससे योगी दिव्य देह वाला ओजस्वी निरोगी प्रसन्न चित् व शुन्यधारी हो जाता है।

घटावस्था

दूसरी अवस्था घटावस्था मैं योगी को आसन में बैठकर विष्णु ग्रंथि विशुद्धि चक्र का भेदन होता है। जिससे अतिशुन्यवस्था प्राप्त होती है इस अवस्था में वाद्य मंत्र सुनाई देते हैं जिससे योगी ज्ञानी व देवतुल्य हो जाता है।

परिचय अवस्था

यह तीसरी अवस्था है इसमें भूमध्य आकाश में नाद सुनाई देते हैं इस प्रकार के नाद में ढोल की ध्वनि सुनाई देती है। इस अवस्था में परमानंद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिससे योगी दुख, जरा, निद्रा आदि से रहित हो जाता है।

निष्पत्ति अवस्था

यह चतुर्थ व अंतिम अवस्था है निष्पत्ति अवस्था है। इस वअवस्था में रूद्र ग्रंथि का भेदन कर आज्ञा चक्र में प्राण पहुंचता है तब साधक को वीणा के स्वर सुनाई देते हैं । इस अवस्था में योगी एकाग्र होकर योग समाधि संज्ञक हो जाता है तथा वह सृष्टि सहार करता ईश्वर के समान हो जाता है।

Leave a Comment