एक बार की बात है कि किसी नदी के तट पर एक साधु महाराज रहा करते थे। उनके साथ कुछ छात्र अध्ययन के लिये निवास करते तथा उनकी सेवा कर विद्याध्ययन करते हुए अपने सदाचरण के द्वारा गुरु की सेवा का प्रसाद ग्रहण करते थे। कई वर्षो से यही परम्परा चली आ रही थी। साधु महाराज का एक और आश्रम दूसरे स्थान पर भी था । इसलिये वह मौसम के अनुसार अपने को तथा छात्रों को स्थानान्तरण करते रहते थे । जिससे उन्हें भोजन और पानी की व्यवस्था का अनुमान भी रहता था।
एक बार महाराज अपने कुछ विद्यार्थियों के साथ दूसरे आश्रम के लिये चल पडे़, रास्ते में कई गाँव तथा कस्बे आते थे। लम्बा पैदल मार्ग तथा घने जंगल की यात्रा के बाद महाराज ने सोचा कि कुछ समय के लिय आराम और कुछ जल-पान कर लिया जाए । तो वे एक गाँव के किनारे रुक गये उन्होंने अपने छात्रों को आराम करने का आदेश, दिया, सभी लोग जल-पान कर आराम करने लगे।
तभी सामने देखते हैं कि एक व्यक्ति कोई पेय पदार्थ बना रहा है और खूब लम्बे-लम्बे गिलासों से मिला-मिला कर प्रसन्न हो रहा है। महाराज ने उस व्यक्ति को कहा भाई ये क्या कर रहे हो? तो व्यक्ति कहता है महाराज ये भाँग-घोटा बना रहा हूँ, दूँ क्या एक गिलास?, लाओ दे दो, महाराज ने कहा और एक सांस में पूरा का पूरा गिलास पी गये।
उनके सभी शिष्य ये दृष्य देख रहे थे और प्रसन्नचित होकर उस दृष्य को आनन्द ले रहे थे । परन्तु एक बालक के मन में थोड़ा सन्देह होने लगा कि हमारे गुरुजी तो भाँग पीते हैं। जब गुरु ही भाँग पी रहे हैं तो चेले को भी पीना चाहिए, इस प्रकार के मानसिक अवस्था को धारण कर वह भी बोला, एक गिलास मुझे भी दे दो भाई, व्यक्ति ने दे दिया और वह भी पी गया और सोचने लगा मुझे गुरुजी कुछ न कहेंगे क्योंकि वे स्वयं भी उसका सेवन कर चुके हैं।
महाराज जी चिन्ता में पड़ गये कि उस बालक के मन में अनुकरण की भावना का विकास नकारात्मक रूप से हो रहा है क्योंकि वे जानते थे कि उन्होंने उस भाँग का सेवन सिर्फ उसके ज्ञान मात्र को जानने के लिये ही किया था। परन्तु ये बालक इस बात को दूसरे शब्दों में सोच रहा है। वह चुप रहे उस व्यक्ति का धन्यवाद कर आगे की ओर प्रस्थान करने लगे। सभी चलते-चलते एक कस्बे में पहुँचे महाराज ने देखा कि एक राज कर्मचारी किन्हीं दस्तावेजों को सीलबन्द करने के लिये लाख को गला रहा है, तभी महाराज जी बोले भाई ये क्या कर रहे हो, महाराज कागजों को सीलबन्द करने के लिये लाख गला रहा हूँ।
लाओ एक गिलास दे दो, और देखते ही देखते महाराज पूरा का पूरा लाख से भरा गिलास पी गये और सभी लोग चकित रह गये और सोचने लगे कि गुरुजी का अन्त हो जायेगा। बालक डर के मारे काँपने लगा और गुरु चरण में पड़ गया और क्षमा माँगने लगा कि गुरुदेव क्षमा दे दो। गुरुजी समझ गये कि बालक के नकारात्मक भाव का नाश हो चुका है और उन्होंने उसे क्षमा कर दिया।
मित्रों! सिद्ध पुरुषों के लिये सभी प्राकृतिक वस्तुओं के प्रति समान भाव होता है इसलिए वे गरम, ठण्डा, नशीली वस्तु अथवा प्रकृति के असन्तुलन को भी सन्तुलित करने की क्षमता रखते हैं। हमें चाहिए कि हम महान सिद्ध पुरुषों का अनुकरण करें परन्तु यदि हम नकारात्मक भाव के साथ उनकी बराबरी करने की सोचेगें तो हमारा अहित भी हो सकता है।
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