विराट योग :-
श्रीमद भगवत गीता के 11 वें अध्याय में अर्जुन भगवान से कहते है- हे भगवन ! आपने मुझे अध्यात्म विषय का पूर्ण उपदेश दिया इससे मेरा मोह नष्ट हो गया है। आपने कहा यह सम्पूर्ण विश्व मेरा ही स्वरुप है। मुझसे ही उत्पन होता है। मेरी शक्ति से ही स्थिर रहता है, और अन्त काल में तथा प्रलय काल में मुझमें ही समा जाता है आपने जैसा कहा वह सर्वथा सत्य है।
किन्तु मै आपके इस दिव्य स्वरुप का दर्शन करना चाहता हूं। भगवान आपका यह स्वरुप यदि मेरे देखने योग्य है तो आप मुझे अपने उस स्वरुप का दर्शन कराने की कृपा करे । अर्जुन के वाक्यो को सुनकर भगवान ने अर्जुन से कहा – हे अर्जुन! मेरे नाना अर्थात असंख्य रुप है। मै तुम्हे उन का दर्शन अवश्य करवाउंगा।
श्री भगवानउवाच
श्लोक – पाश्च में पार्थ रुपाणि शतशोऽथ सहस्त्र्रशः।
ननाविधानि दिव्यामि नानावर्णाकृतीनि च।। 11/5
हे अर्जुन! तुम मुझमें बारह (द्धादस) अदिति के पुत्र आदित्यों, को आठ वासुओ को तथा ग्यारह रुद्रो को, दो असुनि कुमारो को तथा उनपचास मरुदगणो को, मुझमें ही देखो! हे अर्जुन! मेरे इस शरीर में तुम सम्पूर्ण सराचार सृष्टि का दर्शन करो।
यघपि तुम अपने इन नेत्रो के द्धारा मेरे विराट स्वरुप का दर्शन नही कर सकते हो। मै तुम्हैं दिव्य चक्षु प्रदान करता हूं। उन दिव्य चक्षुओ के द्धारा तुम मेरे विराट स्वरुप का दर्शन करो ।
अर्जुन को दिव्य चक्षु प्रदान कर भगवान ने अपने स्वरुप का दर्शन कराया। भगवान के इस विराट स्वरुप में अनेक मुख, अनेक नेत्र, अनेक नेत्रो से युक्त अंसख्य हाथ, दिव्य माला, सम्पूर्ण शरीर मे दिव्य गन्ध अनुलेपन, सभी और मुख, इन सब विशेष गुणों से युक्त विराट स्वरुप का अर्जुन ने दर्शन किया, उस विराट रुप का तेज इतना प्रबल था कि आकाश में हजारो सूर्य एक साथ उदय होने पर भी तेजस्विता में उस विराट स्वरुप की समता (बराबरी) नही कर सकते थे।
भगवान के विराट स्वरुप को देखकर अर्जुन ने श्रद्धा से युक्त होकर भगवान के चरणो में प्रणाम किया, तथा भगवान की स्तुति करने लगे। हे भगवान! मैं आपके शरीर में सम्पूर्ण देवताऔ को कमल आसन में, ब्रहाजी को, सम्पूर्ण ऋषियो को और दिव्य सर्पो को देख रहा हूं। आपकी अनेक भुजाएं, अनेक मुख तथा अनेक नेत्र है। इसलिये मै आपके अन्त, मध्य और आदि किसी भी भाग को नही देख पा रहा हूँ ।
वास्तव मैं आप ही योग्य परम अक्षर परमात्मा आप इस जगत के आश्रय, आप ही धर्म के रक्षक और आप ही सनातन पुरुष है। देवताओं के समूह आप में प्रवेश कर रहे है।
भयभीत होकर आपके नाम और गुणो का उच्चारण कर रहे है। ऋषियो का समुदाय कल्याण हो कल्याण हो ऐसा कहकर आपकी स्तुति कर रहे है। आपका विशाल शरीर जो कि आकाश को स्पर्श कर रहा है, देखकर तथा आपके दाडो के कारण मै आपके भंयकर मुख को देखकर भयभीत हो रहा हूं। सभी राजाऔ के सहित धृतराष्ट के पुत्र, भीष्म पितामाह, द्रोणाचार्य, कर्ण, हमारे पक्ष के सभी योद्धागण आपके मुख में प्रवेश कर रहे है।
जैसे सभी नदियां समुद्र में प्रविष्ट हो जाती है। वैसे ही ये सभी जीव नष्ट होने के लिये आपके मुख में प्रविष्ट हो रहे है। हे भगवान! में आपके स्वरुप को नही जान सकता हूं। अतः आप मेरा प्रणाम स्वीकार करें।
तब भगवान ने अर्जुन से कहा हे अर्जुन! मै इन लोगो का नाश करने वाला महाकाल हूँ । और इनका नाश करने के लिये प्रकट हुआ हूं। यदि तुम युद्ध नही करते हो तो इन सब का नाश हो जायेगा। भगवान की वाणी को सुनकर के अर्जुन ने भगवान से कहा – भगवन आप ही आदि देव है।
आप ही सनातन पुरुष है। आप ही इस संसार के परम आश्रय है। आप ही परम धाम है। अनन्त सामर्थ्य वाले आपको में प्रणाम करता हूँ। आपके प्रभाव को नही जानते हुये, आपको अपना सखा मानकर मैने आपके लिये प्रेम से अथवा प्रमाद से – हे कृष्ण! हे यादव! हे सखा! जो कुछ भी कहा हो ।
इस अपराध के लिये आप मुझे क्षमा करे। आप ही इस सृष्टि के पिता, गुरु तथा परम पुजनीय है। आपके समान कोई भी नही है। जैसे पिता पुत्र के अपराध को सहन कर लेता है । वैसे ही आप भी मेरे अपराधो को सहन करते हुये मुझे क्षमा करेगे।
भगवन मै आपके इस स्वरुप को देखकर, अत्यन्त भयभीत हो रहा हूं। एतएव आप अपने उसी चतुर्भुज रुप में मुझे दर्शन दें। तब भगवान ने अर्जुन से कहा – हे अर्जुन तुम्हारे स्नेह के कारण अपना विराट स्वरुप तुम्हे दिखलाया।
आज तक किसी ने भी मेरे इस विराट स्वरुप का दर्शन नही किया है। मेरा यह स्वरुप न तो वेद के द्धारा, न यज्ञो के द्धारा, न दान से, न उग्र तपस्या के द्धारा देखा जा सकता है। तुम अपना भय दूर करो। मेरे इसी चतुर्भुज रुप का दर्शन करो।
हे अर्जुन! जो व्यक्ति मेरे ही लिए सम्पूर्ण कर्तव्य करता है। मेरा भक्त है। जिसको किसी प्रकार की आसक्ति नही है। जो किसी भी प्राणी में से शत्रुता नही रखता है। ऐसा ही व्यक्ति मुझको प्राप्त होता है।
श्लोक – मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्धक्तः सडगवर्जितगः।
निर्वैर सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।
अवश्य पढ़े – श्रीमद् भगवत गीता तृतीय अध्याय कर्मयोग