श्रीमद् भगवत गीता प्रथम अध्याय “अर्जुन का विषाद योग” अर्थ | Geeta First Chapter in Hindi

अर्जुन का मोह

जब महाभारत का युद्ध शुरु होने वाला था तभी अर्जुन को अपने परिजनो से मोह हो जाता है और वह युद्ध करने से मना कर देता है भगवान श्रीकृष्ण तब अर्जुन को गीता का ज्ञान देते है

है अर्जुन प्राणीमात्र अपने जीवन में दुःखो की निवृति तथा सुख की प्राप्ति चाहता है। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य जीव केवल ईह लौकिक सुखो तक ही सीमित रहते है। किन्तु मनुष्य को भगवान ने अमूल्य बुद्धि स्वरुप उपहार प्रदान किया है।

अतएव मनुष्य इस लोक के अतिरिक्त मृत्यु के पश्चात होने वाले दूसरे लोगो के विषय में भी चिन्तन करता है। यही चिन्तन दर्शन शास्त्र कहां जाता है। इन्ही दर्शन शास्त्रो में गीता शास्त्र का अद्धितीय स्थान है,

गीता क्या है (What is Geeta in Hindi)

गीता सार में सम्पूर्ण वेदो के सार तत्व का संग्रह किया गया है। गीता शास्त्र का मूल महाभारत है। महाभारत के भीष्मपर्व में गीता का पाठ किया गया है । गीता की भाषा अत्यन्त सरल होते हुये भी इनका अभिप्राय अत्यन्त गम्भीर है। गीता के विषय में वेदव्यास जी ने स्वयं लिखा है।

श्लोक – गीता सुगीता कर्तव्य किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।

या स्वयं पघनाभस्य मुख पघाद्धिनि सृता।।

धर्म, अर्थ, काम मोक्ष चारो पुरुषार्थो मेें मुख्य मोक्ष स्वरुप पुरुषार्थ की प्राप्ति के लिये गीता शास्त्र अन्य शास्त्रो की अपेक्षा श्रेष्ठ है । क्योकि यह शास्त्र भी भगवान विष्णु के मुख से साक्षात अर्जुन को निवृत बनाकर उपनिष्ट किया गया है।

गीता के 18 नाम

श्रीमद्भागवत गीता जी के 18 नाम जो कि इस प्रकार से है
गीता, गंगा, गायत्री, सीता, सत्य, सरस्वती, ब्रह्मविद्या, ब्रह्मावाहिनी, त्रिसंध्या, मुक्तागिहिनी, अर्द्धरामात्रा, चिदानंदी, भवांगी, भयनाशनी, चिरा, परा, अनंता, तत्व ज्ञानमंजिरि है।

श्लोक – गीयते असौ इति गीता,

अथवा

गायन्तम त्रायते इति गीता

इस विग्रह के अनुसार भगवान के मुख से निकला हुआ यह गीता शास्त्र रुपी मंत्र अपने अध्ययन करने वाले की स्वयं रक्षा करता है । इस गीता शास्त्र मंत्र का उपदेश भगवान ने लोक कल्याण के लिये ऐसे समय पर दिया जब पापियो के भार से पृथ्वी अत्यन्त पीडित हो रही थी ।

पृथ्वी के भार को कम करने के लिये भगवान ने कौरवो और पांडवो को निमित बनाकर महाभारत का युद्ध प्रारम्भ करवाया। यह महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र की भूमि में हुआ है। दोनो पक्षो की सेनाये युद्ध के लिये आमने सामने खडी थी। कौरव पक्ष से भीष्म पितामाह ने युद्ध का संकेत देते हुये शंख ध्वनि की तत्पश्चात कौरव सेना ने शंख मृदग इत्यादि नाना प्रकार के बाजो से भंयकर ध्वनि होने लगी।

पांडव पक्ष से अपने रथ में आसीन भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भी अपने दिव्य शंखो को बजाया, श्ंाख ध्वनि के पश्चात युद्ध के लिये तैयारी करते हुये अर्जुन ने अपने धनुष को उठाते हुये भगवान श्री कृष्ण से कहा-

श्लोक – “सेनयोरु भयोर्मध्ये रथं स्थापय मेेच्युत” 1/20-21

हे कृष्ण आप मेरे रथ को दोनो सेनाऔ के मध्य में खडा कीजिये मेरी अभिलाषा है कि मै विपक्ष में अर्थात कौरव पक्ष में विदयमान योद्धाऔ को देख सकू कि मुझे कौरव पक्ष की किन किन योद्धाऔ के साथ में युद्ध करना है।

है कृष्ण दुर्बुद्धि युक्त दुर्योधन का हित करने के लिये कौन कौन महारथी यु़द्ध करने के लिये उपस्थित हुये है । मैं उनको देखना चाहता हूं। अर्जुन के इस प्रकार कहने पर भगवान कृष्ण ने अर्जुन के रथ को दोनो सेनाऔ के मध्य में द्रोणाचार्य एवं भीष्म पितामाह के सम्मुख खडा कर दिया इसके बाद अर्जुन ने दोनो सेनाओ में पितामाह, गुरु, मातुल (मामा), पुत्र, पौत्र, ससुर तथा मित्रो को देखा।

श्लोक – तत्रापश्यस्त्थितान पार्थः पितृनथ पितामहान। 1/26

युद्ध भूमि में अपने बन्धु -बन्धुऔ को देख कर अर्जुन के हदय में अत्यन्त करुणा उत्पन हुई और अर्जुन शोक मग्न (दुःखी) हो गया । दुखी होकर अर्जुन ने भगवान कृष्ण से कहा – है कृष्ण यु़द्ध भूमि में स्थित अपने स्वजनो को देखकर के मेरे अंग शिथिल हो रहै है। मुख सुख रहा है। शरीर में कंपाहट उत्पन्न हो रही है।

श्लोक – दृष्टेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम ।।

सीदन्ति मम गात्राणि मुंख च परिशुष्यति 1/28।29

भगवान मेरे हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है। मेरी त्वचा जल रही है। मन भ्रमित हो रहा है। इन अपने लोगो को देखकर मैं खडा नही रह पा रहा हूँ । है केशव में विपरीत लक्षणो को देख रहा हूं। यु़द्ध में अपने लोगो को देखकर मैं खडा नही रहा पा रहा हूँ । युद्ध में अपने ही लोगो को मारकर मुझे कुछ भी कल्याण नही दिखाई दे रहा है।

है गोविन्द!

मुझे विजय नही चाहिये तथा मुझे सुख और भोगो की भी आवश्कता नही है। हमे जिन लोगो के लिये सुख आदि भोगो की आवश्कता थी वे सभी लोग अपने प्राण और धन की आशा को छोडकर युद्ध भूमि में खडे है। है कृष्ण! इस युद्ध भूमि में मेरे गुरुजन, ताउ, चाचा, पुत्र, पौत्र युद्ध के लिये खडे हैं। इन्हे मारकर मुझे तीनो लोको का राज्य भी नही चाहिये। केवल भू लोक के राज्य की बात तो अत्यन्त तुच्छ है। ये लोग मुझे मार भी देगे लेकिन मै फिर भी इन लोगो के उपर शास्त्र का प्रहार नही करूँगा । इन कौरवो को मारकर के हमें किसी प्रकार की कोई शंका नही होगी। उल्टे पाप की लगेगा। लोभ के कारण से जिनका चित भ्रष्ट हो चुका है ऐसे ये लोग कुल के नाश होने से तथा मित्र से छल करने पर जो पाप होता है। उस पाप को नही देख रहे है।

किन्तु कुल के नाश होने से उत्पन होने वाले दोषो से अपने को बचाना चाहिये।

है कृष्ण कुल के नष्ट हो जाने पर कुलो का धर्म नष्ट हो जाता है। कुल धर्म नष्ट हो जाने पर कुल में पाप की वृद्धि हो जाती है। पाप के बढ जाने पर कुल की स्त्रियां दुषित हो जाती है। स्त्रियो के दुषित होने पर वर्ण शंकर उत्पन होते है। ये वर्ण शंकर कुल को तथा कुलघातियो को यानि दोनो को नर्क ले जाते है। तब श्राद और तर्पण से रहित होने पर पित्र लोक भी नरक को प्राप्त होते है।

श्लोक – सकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च,

पतन्ति पितरो हनेषां लुप्त पिण्डोदक क्रियाः।। 1/42

है कृष्ण! जिनका कुलधर्म नष्ट हो जाता है। ऐसे मनुष्यो का अनिश्चित काल तक नरक में वाश होता है। ऐसा हम शास्त्रो में सुनते है। हम लोग बडा भारी पाप करने के लिये तैयार हो रहे है। क्योकि राज्य के सुखो के लोभ से अपने ही लोगो को मारने के लिये तैयार हो रहे है। है कृष्ण ! यदि ये धृतराष्ट्र के पुत्र शस्त्र रहित मुझको अपने शास्त्रो से यदि मार भी देते है। तो मेरे लिये यह अत्यन्त कल्याणकारी होगा। अर्जुन ने ऐसा कह कर बाणो के सहित धनुष को छोडकर रथ के पिछले भाग में जाकर स्वंय बैठ गया।

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