कुंडलिनी योग (शक्ति)
हठयोग परंपरा में कुंडलिनी शब्द सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । योग साधना का मुख्य उद्देश्य कुंडलिनी शक्ति है। जिसके जागरण द्वारा साधक उच्च स्थिति को प्राप्त करता है। कुंडलिनी शक्ति की उत्पति दो प्रकार से कही गयी है।
कुंडले अस्यास्त इति कुंडलिनी
अर्थात -वाम (इड़ा) चंद्र नाड़ी दक्षिण ( पिंगला) सूर्य नाड़ी इन दो नाडियों का सुषुम्ना अग्नि नाड़ी में प्रवाहित शक्ति का कुंडल अर्थात संपूर्ण होने का कारण शक्ति को कुंडलीनी कहते हैं।
मूलाधार को 3:30 फेर से लपेट कर प्रसुप्त अवस्था में रहने वाली शक्ति को कुंडलिनी कहते हैं।
कुंडलिनी शक्ति का स्थान
घेरंड संहिता के अनुसार मूलाधार में जो कुंडली 3:30 फेरे लगाए हुए सर्पनी के रूप में सो रही है। उसके सोते रहने पर जीव पशु (अज्ञानी) की अवस्था में रहता है इसीलिए तब तक ज्ञान उत्पन्न ना हो तब तक अभ्यास करते रहना चाहिए । अतः घेरण्य संहिता में कुंडलिनी शक्ति का स्थान मूलाधार चक्र कहा गया है।
भक्ति सागर के अनुसार
सुषुम्ना में स्थित ब्रह्म नाड़ी के अंतिम छोर कुंडलिनी उसके छिद्र में मुंह लगा सोए हुए हैं । उसने नाभि में लपेट लगा रखी है, जिससे वह ऊपर की तरफ नहीं जा सकती।
कुंडलिनी शक्ति का आकार-
भक्ति सागर के अनुसार-
सवा बलिष्त लगभग 1 फुट बाल के हजारवें भाग के बराबर नागिन की तरह अति सूक्ष्म लाल रंग की है । मणि की तरह लाल प्रकाश युक्त कुंडलिनी आठ लपेट देकर स्थित है।
कल्याण योगांक के अनुसार
यह शक्ति जागृत होने पर मूलाधार से प्रत्येक चक्र का भेदन करके सहस्त्रार चक्र में पहुंचकर शिव से मिलती है । यह स्थिति प्राप्त कर योगी धन्य हो जाता है।
योग सूत्र के अनुसार
इस स्थिति को प्राप्त करने के बाद साधक का शरीर चित् आदि पर नियंत्रण कर लेता है। रोग शोक आदि से मुक्त हो जाता है । तब दृष्टा स्वरूप में स्थित हो जाती है।
घेरण्य संहिता के अनुसार
मूलाधार चक्र में 3:30 लपेटे लगाए सर्पनी रूपी शक्ति सुप्त अवस्था में है । जब तक वह सो रखी है । तब तक व्यक्ति को तत्व ज्ञान प्राप्त नहीं होता। अतः वह पशु के समान होता है। चाहे वह जितना भी प्रयास कर ले अतः इसके प्रभाव में मोक्ष की स्थिति प्राप्त नहीं की जा सकती।
कुंडलिनी योग में मूलाधार में स्थित स्थिति कुंडलिनी शक्ति को जागृत करते हुए चक्रों का भेदन करते हुए सहस्त्रार में स्थित परम शिव के साथ एक तत्व स्थापित करना होता है। शिव शक्ति के मिलन से साधक अपूर्व परम आनंद का अनुभव कर लेता है। यह अवस्था दीर्घकालीन भी हो सकती है, अल्पकालिक भी हो सकती है। क्योंकि यह एक प्रकार की समाधि की स्थिति होती है।
उक्त अवस्था भंग हो जाने पर व्युत्थान ताल के साथ-साथ कुंडलिनी शक्ति भी व्यथित होकर पुनः सुप्त अवस्था में चली जाती है। किंतु साधक की अन्य शक्ति को जागृत कर देती है जैसे दिव्य दर्शन, अति इंद्रिय दर्शन, आत्मा बौद्ध आदि दिव्य अनुभूतियों अतः योगी को जीवन भर प्रयत्न साधना में निरंतरता रखनी चाहिए।
कुंडलिनी शक्ति जागरण के उपाय
- प्राणायाम के द्वारा -सूर्य भेदी ,भस्त्रिका प्राणायाम
- मुद्राओं के द्वारा -शक्ति चालिनी मुद्रा
- चक्र के द्वारा -षट्चक्र
- बंध के द्वारा – उडिडयान बंद द्वारा
- तंत्र योग के द्वारा
- जड़ी बूटियों के द्वारा
- क्रिया योग के द्वारा