चित्त की वृत्तियों के निरोध के लिए महर्षि पतंजलि के द्वारा 2 उपाय बताए गए हैं वह तो उपाय अभ्यास और वैराग्य है।
चित्त की वृत्तियों का प्रवाह प्रारब्ध या परंपरागत संस्कारों के कारण से लोगों की ओर निरंतर प्रवाहित है, उस प्रवाह को रोकने के लिए महर्षि पतंजलि ने वैराग्य का मार्ग बताया है और इसे कल्याण मार्ग में ले जाने के लिए अभ्यास का उपाय बताया है।
1 अभ्यास
तत्र स्थितौ यत्नोंsभ्यास: ll13ll
मन जो कि मूलतः स्वभाव से चंचल ही है। ऐसे में मन को किसी एक भी में लगाने के लिए या स्थिर करने के लिए बारंबार चेष्टा करते रहने का नाम ही अभ्यास है।
किसी एक वस्तु में चित्त को स्थित करने का बार बार प्रयत्न करने से एकाग्रता उत्पन्न होकर विघ्नों का नाश हो जाता है। अतः यह साधन भी साधक के द्वारा किया जा सकता है।
स तु दीर्घकाल नैरंतर्य सत्काराssसेवितो दृढ़भूमि: 14
अपने साधन के अभ्यास को दृढ़ बनाने के लिए साधक कभी अपने साधन कार्य में उकतावे नहीं। यह अपार विश्वास रखे की किया हुआ अभ्यास कभी भी बेकार नही हो सकता, अभ्यास के बल पर मनुष्य निसंदेह अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर लेता है। यह समझकर अभ्यास के लिए काल की अवधि न रखे, आजीवन अभ्यास करता रहे। साथ ही यह भी ध्यान रखे कि अभ्यास में व्यवधान ना आये, निरंतर अभ्यास चलता रहे तथा अभ्यास में क्षणिक बुद्धि ना करें, उसकी अवहेलना न करें बल्कि अभ्यास को ही अपने जीवन का आधार बनाकर अत्यंत आदर और प्रेम पूर्वक उसे सांगोपांग करता रहे। इस प्रकार किया हुआ अभ्यास दृढ़ होता है।
2 वैराग्य –
वैराग्य के भी दो भेद बताये गए है
1 अपर वैराग्य
2 पर वैराग्य
अपर वैराग्य
दृष्टानु श्राविक विषय वि तृषनय तृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यं ll 15 ll
व्याख्या –
अंता करण और इंद्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव में आने वाले इस लोक के समस्त भोगो का समाहार यहां ‛दृष्ट’ शब्द में किया गया है और जो प्रत्यक्ष उपलब्ध नहीं है, जिनकी बढ़ाई वेद, शास्त्र और भोगो का अनुभव करने वाले पुरुषों से सुनी गई है, ऐसे भोग्य विषयो का समाहार । इन दोनों प्रकार के भोगो से जब चित भली भांति तृष्णा रहित हो जाता है , जब उसको प्राप्त करने की इच्छा का पूर्णतः नाश हो जाता , ऐसे कामना रहित चित की जो वशीकार नामक अवस्था विशेष है वह अपर वैराग्य है
पर वैराग्य
तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम् ॥ १६ ॥
व्याख्या –
पहले बतलाये हुए चित्तकी वशीकार – संज्ञारूप वैराग्यसे जब साधक में विषय कामनाका अभाव हो जाता है और उसके चित्तका प्रवाह समानभावसे अपने ध्येयके अनुभवमें एकाग्र हो जाता है ,
उसके बाद समाधि परिपक्व होनेपर प्रकृति और पुरुषविषयक विवेकज्ञान प्रकट होता है , उसके होनेसे जब साधककी तीनों गुणोंमें और उनके कार्यमें किसी प्रकारकी किंचिन्मात्र भी तृष्णा नहीं रहती ; जब वह सर्वथा आप्तकाम निष्काम हो जाता है ऐसी सर्वथा रागरहित अवस्थाको ‘ पर – वैराग्य ‘ कहते हैं