स्वामी रामकृष्ण परमहंस का जीवन परिचय | Swami Ram Krishna Paramhans Ka Jivan Parichay

स्वामी रामकृष्ण परमहंस महान योगी थे । इनका जन्म 18 फरवरी सन् 1833 में बंगाल प्रांत के कामारपुर नामक गांव में हुआ। इन के बचपन का नाम गदाधर था। गदाधर बचपन से ही चंचल स्वभाव के थे।

उन्हें बचपन से ही अपने अंतर्मन की दिव्य अनुभूतियों का अनुभव होने लगा था। जून अथवा जुलाई 1848 में वे आंचल में थोड़ी सी भुनी हुई शबीना बांधे हुए खेतों की ओर जा रहे थे ।

इतने में एक अपूर्व घटना घटित हुई जिसका वर्णन इस प्रकार किया। मैं खेतों के बीच पगडंडी पर चला जा रहा था

वहां जब मैंने आंखें उठाकर आकाश की ओर देखा तो एक बहुत काला मेघ बड़ी तेजी से फैल रहा था। सारा आकाश डर उठा। एक छोड़ से बर के समान सफेद बलों की एक पंक्ति उड़ती हुई और मेरे सिर के ऊपर से निकल गई । इस दृश्य में इतने रंगों का समावेश था कि मेरा मन न जाने कहां उड़ गया। मैं अचेत होकर भूमि पर गिर पड़ा। सारा शबीना बिखर गया। कोई मुझे गोद में उठा कर घर लाया ।

मैं आनंद और भावों के अतिरेक में डूब गया समाधि का अनुभव मुझे पहली बार तभी हुआ तब से ऐसी अचेत अवस्था होने लगी जिससे माता-पिता को भी चिंता होने लगी घरवाले इनकी इस अवस्था को शारीरिक व्याधि समझने लगे काफी डॉक्टर और वेदों के द्वारा इनकी चिकित्सा कराई गई किंतु इनकी अवस्था में कोई परिवर्तन नहीं आया।

वेदों ने कहा यह बीमारी शारीरिक या मानसिक नहीं यह कोई व्यवस्था है प्रतिभाशाली गदाधर अपने हाथों से मूर्तियां बनाते और उन में खो जाते थे मंदिरों में वह श्री राम की कथा और श्री कृष्ण का ललित स्वर में गुणगान करते थे और विद्वानों से तर्क वितर्क में सदा अग्रसर रहते थे 7 वर्ष की अवस्था मे उनके पिता का देहांत हो गया।

अब इनका परिवार आर्थिक संकट में फंस गया इनके बड़े भाई राजकुमार ने कोलकाता में पाठशाला खोली और 1852 मेरे छोटे भाई गदाधर को अपने साथ कलकत्ता ले गए। परंतु गदाधर ने पढ़ना स्वीकार नहीं किया।

कोलकाता में उन्हीं दिनों एक रानी थी जिसका नाम राजमणि था। वह जाति में शुद्र थी उन्होंने मां महाकाली का मंदिर गंगा तट के पूर्व पर बनवाया। उनके शुद्र होने के कारण कोई भी ब्राह्मण उस मंदिर के पुजारी का पद ग्रहण नहीं करना चाहता था। अर्थ अभाव के कारण इनके बड़े भाई राजकुमार ने यह पद स्वीकार कर लिया।

1 वर्ष बाद राजकुमार की मृत्यु हो गई। तब गदाधर ने पुजारी का दायित्व ग्रहण किया। राजकुमार देवी की सेवा भक्ति और साधना में तल्लीन हो गए। इस बीच इनकी माता की इच्छा से इनका विवाह 5 वर्ष की शारदा नामक लड़की से हो गया।

विवाह के उपरांत प्रथा के अनुसार वह पुत्र ग्रह लौट गई और 8 वर्ष तक उसने पति के दर्शन नहीं किए। इधर रामकृष्ण काली मां की सेवा में लगे रहे। कुछ समय बाद एक अभिजात वर्ग की ब्राह्मण महिला से इनकी भेंट हुई। जिन्होंने साधना के लिए किसी योग्य गुरु का आश्रय लेने का परामर्श दिया। जिसको इन्होंने संघर्ष स्वीकार किया।

सन 1864 के अंतिम दिनों में तोतापुरी दक्षिणेश्वर पहुंचे। तोतापुरी वेदांती सन्यासी थे। रामकृष्ण ने काली मां की अनुमति प्राप्त कर, तोतापुरी से संन्यास की दीक्षा ली और उनके द्वारा निर्देशित निराकार ईश्वर की उपासना में जुट गए।

परंतु वे आरंभ में सफल न हो सके क्योंकि मां काली की मूर्ति सरकार के प्रति इनकी अनन्य अवस्था थी। इन्हीं शब्दों में मैंने अनेक भारत की शिक्षा पर मन स्थिर करने का प्रयत्न किया किंतु प्रत्येक बार मां की मूर्ति बाधा बनकर आ खड़ी हुई।

जब बाधा के संबंध में उन्होंने अपने गुरु तोतापुरी से निवेदन किया । तो उन्होंने कांच के टुकड़े की नोक रामकृष्ण की दोनों भवनों के मध्य में बढ़ाते हुए कहा कि अपने मन को इस बिंदु पर केंद्रित करो । तब मैंने पूर्ण बल के साथ ध्यान किया और देवी मां की भव्य मूर्ति को विवेक की तलवार से खंडित करते हुए अंतिम बाधा को दूर किया और मेरी आस्था एकाएक शगुन के पार पहुंच गई और मैं समाधि में डूब गया।

1865 के अंतिम दिनों में तोतापुरी जी के जाने के बाद रामकृष्ण माह से अधिक अवधि तक समाधिस रहे। निराकार के संग आत्मा के मिलन से यह चरम अवस्था थी। कालांतर में रामकृष्ण ने गोविंद राय आदि से दीक्षा लेकर विभिन्न संप्रदायों की साधना की।

जिस समय में जिस संप्रदाय की साधना करते उसी के अनुरूप जीवन को जीते थे । जैसे इस्लाम की साधना करते समय यह पांच वक्त नमाज पढ़ते थे। कृष्ण की साधना करते समय यह पूर्ण सिंगार करके गोपियों के वेश में रहते थे। इन्होंने इस्लाम मसीह, हिंदू धर्म के विभिन्न संप्रदाय की भी साधना की।

इनके इन्हीं तप साधनाओं का प्रभाव था की जब नरेंद्र ने आकर इनसे पूछा कि क्या आपने ईश्वर को देखा है तो उन्होंने सहज ही उत्तर दिया हां ठीक उसी तरह जिस तरह मैं तुम्हें देख रहा हूं । इसी से प्रभावित होकर नरेंद्र ने इसका शिक्षत्व ग्रहण किया।

बाद में विवेकानंद इनके आध्यात्मिक ज्ञान से प्रभावित हुए। उस समय के कई प्रतिष्ठित इनके शिष्य बने तो पूर्ण संयास ले कर इनके द्वारा ज्ञान प्राप्त किया और उसे दुनिया भर में फैलाने का संकल्प लिया और सफल रहे।

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