पंचभूत किसे कहते है –
पृथ्वी जल अग्नि वायु और आकाश यह पंचभूत कहते हैं। इनमें से हर एक की पांच अवस्थाएं होती। अर्थात अपना अपना रूप होता है।
पंचभूत का स्वरूप –
इन पांच भूतो के जो लक्षण है वह इनकी स्वरूप अवस्था कहलाती है जैसे पृथ्वी की मूर्ति ओर गंध, जल का गीलापन (स्नेह), अग्नि की उष्णता और प्रकाश, वायु की गति और कंपन, आकाश का अवकाश और स्वरूप स्वरूप है।
आकाश का स्वरूप क्या है
शरीर और आकाश का जो आपस मे संबंध है उसे संयम द्वारा पूर्णतया प्रत्यक्ष कर लेने पर साधक इस शब्द को भली-भांति समझ लेता है कि शरीर के अंग किस प्रकार सूक्ष्म अवस्था से स्थूल अवस्था में परिवर्तित होते हैं और किस प्रकार पुनः स्थूल से सूक्ष्म बनाए जा सकते हैं। अतः वह अपने शरीर को अत्यंत हल्का बनाकर आकाश में गमन कर सकते है। इसी तरह योगी जब किसी भी सूक्ष्म धुनि हुई रुई या बादल आदि वस्तु में संयम करके तद्रूप हो जाता है तब उससे भी उसको आकाश गमन की योग्यता हासिल हो जाती है यही आकाश का स्वरूप है
स्वरूप अवस्था में संयम करने का फल
चित के बंधन का कारण कर्म संस्कार होते हैं कर्मों का फल भुगतने के लिए यह चित किसी एक शरीर में बंधे रहने के लिए मजबूर हो जाता है उक्त बंधन के कारण रूप कर्म संस्कारों को जब मनुष्य समाधि के अभ्यास द्वारा शिथिल करके चित को स्वच्छ बना लेता है और साथ ही जिन – जिन मार्गों द्वारा चित शरीर में विचरता है उन मार्गों को और चित्त की गति को भी भली-भांति जान लेता है तब उसमें यह सामर्थ्य आ जाती है कि वह अपने चित्त को को शरीर से बाहर करके दूसरे के मृत या जीवित किसी भी शरीर में प्रविष्ट कर सकता है चित्त के साथ साथ इंद्रिय भी जहां चित जाता है वहां अपने आप चली जाती है।
शरीर के बाहर जो मन की अवस्था है उसको विदेह अवधारणा बोलते हैं। यह जब मन के शरीर में रहते हुए ही केवल भावना मात्र से होती है तब तो कल्पित है और जब शरीर से संबंध छोड़कर बाहर निकले हुए मन की बाहर स्थिति हो जाती है तब अकल्पित होती है। कल्पित धारणा के अभ्यास से ही अकल्पित धारणा सिद्ध होती है इसी को महाविदेह बोलते हैं। इसी से योगी के ज्ञान का आवरण नष्ट होता है यह धारणा इंद्रिय और मन की स्वरूप अवस्था में संयम करने से होती है।