कुछ समय पहले कि बात है एक संत अपने कुछ शिष्यो के साथ अपनी कुटीया में एक जंगल में रहा करते थे। वह रोज कुटीया के आंगन में लगे पेड के नीचे ध्यान किया करते थे। एक दिन दोपहर के समय बिल्ली का एक छोटा सा बच्चा कही से आ़श्रम में पंहुच गया । वह भुख के कारण से जोर जोर से रो रहा था। बाबा को यह समझने में देर नही लगी की यह भुखा है तो उन्होने उसे खाने के लिये दुध और रोटी दी। लेकिन वह इसके बाद वही रहने लगा और आश्रम से जाने का नाम ही नही लेता। अब स्वामी जी ने बच्चे को आश्रम में ही पलने दिया।
लेकिन बिल्ली का बच्चा स्वामी जी के साथ ही रहने लगा जिससे उनको आगे काफी दुविधाये आने लगी। खास कर के जब भी स्वामी जी ध्यान में बैठते तो वह उनको परेशान करता। कभी उनकी गोद में तो कभी कंधे पर चढ जाता । जिससे स्वामी जी का ध्यान भंग हो जाता। अब इस समस्या से निबटने के लिये उन्होने एक उपाय निकाला। अब वह जब भी ध्यान में बैठते तो वह अपने शिष्यो को बिल्ली के बच्चे को आश्रम से बहार एक पेड पर बांधने को कहते। इस तरह से जब भी स्वामी जी ध्यान में बैठते तो उनके शिष्य बिल्ली के बच्चे को पेड पर बांध आते।
इसी तरह यह सिलसिला चलता रहा और एक दिन स्वामी जी ने शरीर त्याग दिया। अब उनके शिष्यो ने आपस में चुनाव करके उनके सबसे काबिल शिष्य को उनकी जगह पर बिठा दिया।
अब वह शिष्य जब भी ध्यान लगाता तो हमेशा की तरह और शिष्य बिल्ली के बच्चे को पेड पर बांध आते। यह आश्रम का नियम बन गया था। अब एक दिन वह बिल्ली किसी कारण से मर गयी।
अब सारे शिष्य बिल्ली के बच्चे कि मौत से परेशान थे। सभी शिष्यो कि एक बैठक बुलायी गयी । सभी यही कह रहे थे कि स्वामी जी तब तक ध्यान में नही बैठते थे जब तक बिल्ली को पेड से नही बांधा जाता था। सभी ने यह निर्णय निकाला कि एक और बिल्ली लायी जायी और ध्यान के समय उसे पेड पर बांधा जाये।
फिर पास की ही एक बस्ती से बिल्ली के एक बच्चे को पकडकर लाया गया और हमेशा की तरह जब स्वामी जी ध्यान में बैठते तो बिल्ली को पेड पर बांधा जाने लगा।
इस प्रकार से शिष्यो ने बिना सोचे समझे एक गलत फैसला लिया और एक और गलत अवधारणा को जन्म दिया और न जाने कितने सालो तक यह सिलसिला जारी रहा। और अगर इसे किसी ने गलत ठहराने कि कोशिश कि तो वह कहते यह परम्परा तो हमारे पुराने गुरु लोगो से चली आ रही है। यह गलत कैसे हो सकती है। चाहे जो जाय हम इसको नही छोड सकते है।
यह तो हुयी इन शिष्यो कि बात लेकिन आज हमारे समाज मे फैले न जाने कितने अंधविश्वासो पर हम इसी तरह विश्वास कर लेते है। और जब उन्हे छोडने की बारी आती है तो यह कह कर नकार देते है कि यह तो हमारे पुरखो से चली आयी पंरम्परा है।
दोस्तो किसी भी बात पर तब तक विश्वार न करो जब तक उसे अपने तर्क की कसौटी पर न कस लो। जो चीजे प्रत्य़क्ष दिखायी दे रही हो और जिस से किसी का अहित हो रहा है तो उसे छोडने मे कोई हिच किचाहट नही होनी चाहिये।
यही कोशिश करे कि किसी अंधविश्वार रुपी बिल्ली को बांध कर न रखे ।
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