ईशावास्योपनिषद के अनुसार कर्मनिष्ठा की अवधारणा:-
ईशावास्योपनिषद शुक्ल यजुर्वेद काण्वशाखयीय संहिता का 40 अध्याय है। मंत्र भाग का अंश होने से इसका खास महत्व है।
इसको पहला उपनिषद माना जाता है। इसमें कर्म निष्ठा की अवधरणा बताते हुए कहा गया है कि
ॐ ईशा वास्यमिद सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम् ॥ १ ॥
अखिल विश्व ब्रह्मांड मैं जो कुछ भी यह चराचरात्मक जगत में आपके देखने सुनने में आ रहा है। सब का सब सर्वाधार , सर्व नियंता सर्वधिपति , सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्व कल्याण गुण स्वरूप परमेश्वर से व्याप्त है। सर्वत्र उन्हीं से परिपूर्ण है। ईश्वर को सदैव अपने साथ रखते हुए , सदैव उनका स्मरण करते हुए , आसक्ति का त्याग करके केवल कर्तव्य पालन करने के लिए विषयों का अनासक्त भाव से भोग करना चाहिए। विषय भोगो में मन को न उलझने दे । ऐसा कर्म करने से कल्याण होगा।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः । एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥ २॥
इस जगत के एक मात्र पालन करता सर्वशक्तिमान परमेश्वर को निंरतर स्मरण रखते हुए सब कुछ उनका ही समझकर उनकी ही पूजा के लिए इस सांसारिक लोक में शास्त्र नियत कर्म करके हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करनी चाहिए।
ऐसे कर्म तुझे कर्म बंधन में नही डालेंगे। यही कर्म बन्धन में लिप्त न होने का एक मात्र मार्ग है।
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः । तारस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥ ३ ॥
मनुष्य शरीर बड़ा ही दुर्लभ है। यह जीव इस संसार रूपी समंदर से पर करने है लिए ही मिलता है। इस शरीर को पाकर भी जो मनुष्य अपने कर्मो को ईश्वर को समर्पित नहीं करते भोग को ही अपने जीवन का लक्ष्य मानते है और विषयो की इच्छा रखकर इसकी प्राप्ति में ही लगे रहते है। ऐसे अज्ञानी पुरुष आत्मा की हत्या करने वाले ही होते है। वह मरने के उपरांत असुरों की योनि तथा भिन्न भिन्न प्रकार के भयानक नर्को को प्राप्त होते है।