योग के आधारभूत तत्व
योग की अवधारणा में सबसे पहले योग के अर्थ को जानना सबसे आवश्यक है अलग-अलग ऋषि मुनियों की अलग-अलग परिभाषाएं जैसे योग का अर्थ होता है जोड़ना अर्थात आत्मा का परमात्मा से मिलन योग है। महर्षि पतंजलि के अनुसार चित्त की वृत्तियों को रोकना ही योग है। इसी प्रकार गीता में भी योग की अलग परिभाषा दी गई है गीता के अनुसार कर्ता का कर्म से जुड़ाव योग है। “समत्वं योग उच्यते” अर्थात प्रत्येक व्यक्ति के साथ समान व्यवहार करना ही योग है।
योग का काल
योग के अर्थ को जानने के बाद अब प्रश्न उठता है कि योग का काल क्या है, योग की उत्पत्ति कब हुई है, सृष्टि जब उत्पन्न हुई तब से योग की उत्पत्ति हुई। योग के आदि प्रवक्ता भगवान शिव शंकर ने योग की शुरुआत की, इसीलिए उन्हें आदिनाथ शिव भी कहा जाता है। योग के दूसरे प्रवक्ता हिरण्यगर्भ को ही परमात्मा माना गया है।
योग की परंपरा
वैदिक योग परंपरा जो हिरण्यगर्भ से अभी तक है। हठयोग की परंपरा (नाथ संप्रदाय से) एक बार भगवान शिव माता पार्वती को हठयोग का उपदेश दे रहे थे, तो मत्स्येद्रनाथ ने चुपके से यह ज्ञान सुन लिया। फिर मत्स्येद्रनाथ ने यह ज्ञान अपने शिष्य गुरु गोरखनाथ जी को दिया।
तभी से है गुरु शिष्य परंपरा बनती चली गई। लेकिन आधुनिक काल में यह संभव नहीं था कि गुरु और शिष्य समक्ष हो सके। इसीलिए बहुत से ग्रंथ लिख दिए गए जैसे हठयोग के लिए हठयोग प्रदीपिका, घेरंड संहिता, शिव संहिता, गोरख संहिता ऐसे ही बहुत सारी सहिता लिख दी गई ।
योग की आवश्यकता
आधुनिक युग में योग की बहुत अधिक आवश्यकता है। जैसे शारीरिक रूप से, मानसिक रूप से और आध्यात्मिक विकास के लिए योग अत्यंत आवश्यक है
शारीरिक रूप से योग की आवश्यकता
व्यक्ति को आरोग्यता दिलाने के लिए रोगों के उपचार के लिए शारीरिक रूप से योग अत्यंत आवश्यक है। दीर्घायु उत्तम स्वास्थ्य मनुष्य का प्रथम लक्ष्य है
मानसिक रूप से योग की आवश्यकता
मानसिक रूप से योग करना शरीर के लिए अत्यंत आवश्यक है । ध्यान करने से व्यक्ति का मन और दिमाग सदा शांत रहता है। प्रत्याहार में मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है, इसीलिए मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति हेतु योग आवश्यक है।
आध्यात्मिक विकास
नकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर जाना ही आध्यात्मिकता है। आजकल के समय में प्रत्येक दूसरा व्यक्ति नकारात्मकता का शिकार है। उसे सकारात्मक बनाने हेतु आध्यात्मिकता का विकास करना अत्यंत आवश्यक है।
योग के अनुशासन
दीर्घकाल जन्म से मृत्यु प्रयत्न तक अभ्यास, यानी मनुष्य जब तक जीवित है तब तक उसे प्रयास करना चाहिए। निरंतरता के साथ रोज अभ्यास करना चाहिए। श्रद्धा के साथ व्यक्ति जो भी काम करता है उसे उस पर विश्वास होना चाहिए। दृढ़ता, व्यक्ति को आलस्य नहीं करना चाहिए। एक बार किसी काम का निश्चय कर लिया हो तो उसे पूरा करके ही रहना चाहिए।
योग साधना में बाधक तत्व
हठयोग प्रदीपिका के अनुसार
अत्याहार- अधिक भोजन करने को अत्याहार कहा जाता है।
अधिक श्रम – अपने सामर्थ्य से अधिक काम करना अधिक श्रम कहलाता है
अत्यधिक बोलना- बहुत ज्यादा बोलना योगी को कम बोलना चाहिए।
नियम पालन आग्रह- डिसिप्लिन तमोगुण का कारण होता है।
जनसंघ- ज्यादातर लोगों से मिलना
मन की चंचलता- चित का भटकना
पतंजलि के अनुसार योग की 9 बाधाएं
- व्याधि – रोग हो जाना
- स्त्यान – धार्मिक ग्रंथों में रुचि ना लेना
- संशय -मिथ्या ज्ञान को दूर करना
- प्रमाद- लापरवाही
- आलस्य -तमोगुण के बढ़ने के कारण आलस्य उत्पन्न होता है
- भ्रांति दर्शन – विपरीत ज्ञान
- अविरति – भौतिक पदार्थों में आशक्ति होना
- अलब्ध-भूमिकत्व – समाधि की प्राप्ति ना होना
- अनवस्थितत्वानि – समाधि लगने के बाद छूट जाना
योग का व्यावहारिक पक्ष
किस तरह से हम इसको अपने व्यवहार में लाएं परिभाषाएं-
पांच वृत्तियों का निरोध कर देना जो कष्ट देने वाले हैं क्लिष्ट वृत्ति या है सुख देने वाले अक्लिष्ट वृत्तीय है
समत्व योग उच्चते समभाव रखना हर समय अपनी एकाग्रता को भंग ना करना
कर्मों में कुशलता आरूढ़ होकर के काम करना शारीरिक मानसिक रूप से करना सहज कर्म करना स्वभाविक कर्म करना चाहिए
स्वास्थ्य का व्यावहारिक पक्ष
शारीरिक स्वास्थ्य जरूरी है। आसन का अभ्यास से दृढ़ता आती है। प्राणायाम से आंतरिक शुद्धि होती है। प्रत्याहार से हमारा मानसिक स्वास्थ्य ठीक होता है। किसी को दुख ना देना पॉजिटिविटी होना मेडिटेशन यह व्यक्ति तभी कर सकता है। जब उसके अंदर आध्यात्मिकता हो इसीलिए व्यक्ति को आध्यात्मिक होना चाहिए।
अनुशासन का व्यावहारिक पक्ष
लंबे समय तक अभ्यास करने से अभ्यस्तता आती है। निरंतरता ,श्रद्धा ,विश्वास, दृढ़ता, दृढ़ निश्चय ,मजबूती,|
बाधक तत्वों का व्यावहारिक पक्ष
व्याधि -शारीरिक दोष (वात पित्त कफ)
आलस्य -तामसिक प्रवृत्ति बढ़ने के कारण आवृत्ति -वैराग्य का अभाव
अत्याहार -अधिक खाना
जनसंघ -अधिक लोगों से मिलना
चंचलता -एकाग्रता की कमी