जिस संस्कार में बालक को चूड़ा एवं शिखा धारण कराई जाती वह चूड़ा करण संस्कार कहा जाता है। लोकाचार में इस संस्कार को मुण्डन संस्कार भी कहा जाता है। संस्कृत भाषा में चूड़ा शब्द का प्रयोग शिखर या चोटी के लिए होता है। इसमे प्रमुख कार्य बालक के लंबे केश काटने का है। इस संस्कार में बालक के गर्भकालीन केशो का कर्तन कराकर शिखा रखते है।
गर्भावस्था के दौरान ही बालक के सर पर बाल आने लग जाते है और इन मलिन बालो का कर्तन करवाना महत्वपूर्ण होता है। मुंडन करने पर सहजता से सूंदर ओर अधिक पुष्ट बाल आने में सहायता मिलती है।
चरक संहिता में लिखा है कि इस संस्कार से बल आयु औऱ तेज में वृद्धि होती है। मनुष्य का सिर मस्तिष्क का घर होने के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण है। हमारी खोपड़ी के भीतर ही हमारा मस्तिष्क सुरक्षित होता है। मस्तिष्क हमारी कर्मेंद्रियां और ज्ञानेंद्रियां का मुख्य केंद्र होने के कारण हमारे समस्त शरीर का संचालन करता है।
मस्तिष्क को ढकने वाली खोपडी की अस्थियों की संधिया तीन साल तक नही जुड़ पाती है। तब गर्भावस्था के दौरान शिशु के सर में जन्मे बाल ही खोपड़ी की रक्षा करते है।
तत्पश्चात चूड़ाकरण संस्कार के समय उनकी आवश्यकता ना होने के कारण उनको कटवा दिया जाता है। चुड़ाकरण संस्कार के पीछे का वैज्ञानिक तथ्य यह है कि इस संबंध में कहा जाता है कि सिर के जिस स्थान पर शिखा रखी जाती है , उस जगह सहस्त्रार चक्र का केंद्र है। शिखा के ठीक नीचे बुद्धि चक्र बिन्दु भी है और इसी के पास ब्रह्मरंध्र भी है।
बिंदु चक्र एवं ब्रह्मरंध्र के ठीक ऊपर सहस्त्रदल कमल में अमृत रूपी ब्रह्मा का अधिष्ठान माना जाता है। जब भी हम मनन ,चिंतन ओर ध्यान आदि करते है । उस समय यह ध्यान अमृत तत्व सहस्त्रदल कर्णिका में प्रविष्ट होकर सिर से बाहर जाने का प्रयास करता है। इस समय पर यदि शिखा में ग्रंथि लगी हो तो यह अमृत तत्व बाहर नही निकल पाता । अतः शिखा का यह स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है।
शरीर विज्ञान के अनुसार शिखा वाली जगह में “पिट्यूटरी” नामक एक मुख्य ग्रंथि होती । शरीर मे एक विशेष रस का संचार इसी ग्रंथि के द्वारा होता है। जिससे शरीर हष्ट पुस्ट ओर मस्तिष्क विकसित होता है। इसलिए सीखा स्थान पर बाल बढ़ाना इस ग्रंथि की सुरक्षा के लिए जरूरी है।
शरीर मर्म स्थलों में शिखास्थान प्रधान स्थान है। इस जगह चोट लगने पर मृत्यु तक हो जाती है। अतः मर्म स्थल की सुरक्षा यह लंबी और मोटी शिखा करती है।
सूर्य की किरणों से निकलने वाली प्रकाशिनि शक्ति को शिखा अपनी ओर आकर्षित करने और सहस्त्रदल कर्णिका तक पहुँचाने में एक संप्रेषक का कार्य करती है । शिखा रखने से और इसके नियमो का पालन करने से सदविचार ,सदबुद्धि, सदवृत्ति एवं शुचिता में वृद्धि होती है।
इस संस्कार में शिखा के बालो को छोडकर बाकी बालो का कर्तन करने से कही लाभ होते है जैसे त्वचा संबंधी रोगों का असर नही होता है, जो नये बाल आते है वह झड़ते नही है ओर बद्धमूल हो जाते है।
मुंडन करने के बाद सिर में मलाई आदि से मालिश करने का भी जिक्र किया गया है। जिससे हमारे सर को मज्जातन्तुओ को शीतलता , कोमलता ओर शक्ति अर्जित होती है जो बुद्धि के विकास में सहायता करती है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए मस्तिष्क का शीतल होना उत्तम माना जाता है। अनेक प्रकार के रोग सिर में होते है इसलिए इनसे बचने के लिये मुंडन के समय दही, माखन आदि लगाया जाता है।
चुड़ा करण संस्कार का समय
पारस्कर ग्राह्य सूत्र के कथन अनुसार चूड़ाकरण संस्कार जन्म के ठीक 1 वर्ष पश्चात या तृतीय वर्ष की समाप्ति से पहले कराना चाहिए। गोभीलाचार्य ने बालक व बालिका का चूड़ाकरण तीसरे वर्ष में करने को कहा है।
स्मृति कार मनु भी यही कहते हैं कि वेदों के नियम अनुसार सभी 3 जातियों का चूड़ाकरण प्रथम अथवा तृतीय वर्ष में करवाना चाहिए। कुछ आचार्यों के मतानुसार यह संस्कार उपनयन संस्कार के साथ – साथ भी सम्पन किया जा सकता है। जो सात वर्ष की आयु के पश्चात भी सम्पन हो सकता है ।
तीसरे एवं पंचम वर्ष में चौलकर्म प्रशस्त मानते है, लेकिन सातवे वर्ष में अथवा उपनयन के साथ भी कर सकते है। अत्रि के अनुसार शिशु का पहले वर्ष में चौल संस्कार करने से दीर्घायुष्य ओर ब्रह्मवर्चस अर्जित होता है। तृतीय वर्ष में करने से यह समस्त कामनाओ की पूर्ति करता है। पशुकाम व्यक्ति को पाँचवे वर्ष में यह संस्कार करवाना चाहिए। लेकिन युग्म वर्षो में इसको नही करना चाहिये।
तृतीय वर्ष में सम्पन हुये चुड़ाकरण को विद्वान सर्वोत्तम कहते हैं। षष्ठ अथवा सप्तम वर्ष में करवाने पर यह साधारण माना जाता है लेकिन दस अथवा ग्यारह वर्ष में करने पर निकृष्टतम मानते हैं ।
चूड़ाकरण का यह समय ज्योतिष विषयक ग्रंथों में निर्धारित किया है। मुहूर्त चिंतामणि के अनुसार जन्म समय वा गर्भाधान समय के तृतीय वर्ष से लेकर विषम वर्ष उत्तरायण के चैत्र मास के अलावा बुध, चंद्र, शुक्र, गुरुवार इन्ही गृहों के लग्न औऱ नवमांश में, बालक के जन्म लग्न वा राशि से आठवें लग्न के शिवाय ज्येष्ठा, मृदुसंज्ञक नक्षत्रो में पापग्रह (11-03-06) स्थान में हो, तो चूड़ाकरण कर्म बालक का शुभ है।
दिन के समय में यह संस्कार किया जाता था। इसका प्रत्यक्ष कारण यह था कि रात के समय मे बालों को काटने में भय रहता है। यदि बालक की माँ के गर्भिणी हो तो क्षौर कर्म नही करवाया जाता है। क्योंकि वह इस संस्कार में भाग नही ले सकती है।
क्योकि गर्भावस्था के पंचम मांस से यह नियम लागू होता है। ओर आदि बालक की उम्र 5 वर्ष हो तो इस समय भी यह नियम लागू नही किया जाता है। यदि बालक की माता रजस्वला हो तो भी यह उनके शुद्ध होने तक संस्कार स्थगित कर देते है।
इस समय में संस्कार पूर्ण होने से इसके दुष्परिणामों का भय बना रहता है। माता के रजस्वला होने पर विवाह, उपनयन और चूड़ाकरण संस्कार करने से नारी विधवा हो सकती है। और बालक की मृत्यु भी हो सकती है।
अशिक्षित और अर्ध सभ्य लोगो को निसंदेह, उक्त कथन में चेतावनी दी गयी है, लेकिन किन्तु इस निषेध के आधार में यह धरणा निहित है कि रजस्वला अवस्था मे माता अर्धरुग्ण होती है। इसलिए संस्कार में वह योगदान नही कर सकती है।
माता के बिना संस्कार का आधा आनंद और हर्ष नष्ट हो जाता है इसलिए यह प्रश्न चूड़ाकरण के पूर्वर्ती संस्कारों में नहीं उठाया जाता है। इसका मुख्य कारण यह है कि पहले यह प्रश्न उठता ही नहीं था। क्योंकि गर्भावस्था तथा प्रसव के बाद कुछ महीनों तक मासिक धर्म बंद हो जाता है।
पारस्कर ने चूड़ाकरण संस्कार अपने कुल परंपरा के अनुसार व मान रखते हुए संपन्न करने को कहा है।
शिखा स्थापन –
चूड़ाकरण संस्कार में शिखा रखना इसका सबसे मुख्य अंग है। जैसा कि स्वयं संस्कार के नाम से इंगित होता है । कुल की प्रथा के हिसाब से शिखा रखी जाती है। केशों की व्यवस्था (केशवान) अपने कुल धर्म के अनुरूप करनी चाहिए।
शिखाओं की व्यवस्था तीन अथवा पांच हो सकती है। जो प्रवरों की संख्या के आधार पर निश्चित की जाती है। अलग अलग कुलो में अधोलिखित विभिन्न प्रथाओं के अनुसरण का इस प्रकार से धर्मसिन्धु में उल्लेख मिलता है।
वशिष्ट के वंशज केवल सिरके मध्य भाग में ही शिखा रखते हैं। दोनों और दो सिखाएं कश्यप और अत्री वंश के लोग रखते हैं। भृगु वंश के लोग मुंडित रहते हैं। अड़िगरस के वंसज पांच शिखाओं को रखते है। कुछ समुदाय बालो की पंक्ति रखते है ओर बाकी केवल एक शिखा रखते है।
आगे चलकर उतर भारत मे सादगी तथा सहजता की दृष्टि से केवल एक शिखा रखने की प्रथा बढ़ गयी। हालांकि दक्षिण में ज्यादातर प्राचीन प्रथाएँ अभी तक जीवित है। बंगाल में भार्गवों की प्रथा प्रचलित है, जो शिखा रखने पर खास ध्यान नही रखते।