महाकवि सूरदास पहले ऐसे कवि थे जिन्हें महाकवि की उपाधि मिली। सन 1478 ईस्वी में रामदास सारस्वत जी के यहां एक बेटा पैदा हुआ। जो जन्म से ही अंधे पैदा हुए मथुरा में इनका जन्म हुआ
उनका कृष्ण भक्ति के प्रति विशेष प्रेम था। सूरदास जी की वाणी बचपन से ही मधुर थी। वह कृष्ण लीलाएं करते थे। सूरदास जी का मन कविताएं पढ़ने से लगता था। जितना सुंदर वर्णन उन्होंने किया है वह करना संभव नहीं।
मथुरा की भीड़ भाड़ उन्हें अच्छी नहीं लगती थी। अतः वह मथुरा आगरा रोड पर स्थित गांव घाट पर आकर रहने लगे। श्रीनाथजी के मंदिर की देखभाल करने लगे।
वल्लभाचार्य अपने समय के सूझे महात्मा थे । सूरदास जी उनके दर्शन के लिए गए तथा उन्हें कुछ विनय और दीनता के पद सुनाई दिए।
वल्लभाचार्य ने पद सुने बड़े खुश हुए और साथ ही यह भी कहा कि सोरों होके चाहे तो गिर गिर आते हो लीला और गायन किया करो।
इस प्रकार का निर्देश पालन वल्लभाचार्य जी से दीक्षा लेकर सूरदास भगवान श्याम सुंदर की लीलाओं का गायन करने लगे। वह नदी घाट पर जाकर कीर्तन करते थे ।
ऐसा देखकर वल्लभाचार्य ने इन्हें अपना शिष्य बनाया। इनको दीक्षित किया। उनको शिक्षित किया। शिक्षा के पश्चात से नाथ मंदिर जो मथुरा में ही है वहां पर कीर्तनकार के ग्रुप में इनको रखा। वहां पर कीर्तन कीजिएगा ऐसा कहकर वह चले गए। गुरु और शिष्य में केवल 10 दिन का अंतर रहा ।
उनकी प्रसिद्धि हुई । उनको अकबर ने दरबार में बुलाया। उन्होंने कीर्तन करना शुरू किया। उनका गीत उन्हें बहुत पसंद आया । अकबर बादशाह ने उनसे कहा कि आप यहीं पर रहीए मेरी भक्ति कीजिए।
इन्होंने बड़ी सरलता से कहा कि मैं केवल कृष्ण भक्ति ही करता हूं। मुझे क्षमा करिए। व्यक्ति विशेष की भक्ति नहीं करता हूं। वल्लभाचार्य ने उन्हें पुष्टि भक्ति का मार्ग दिखाया।
पुष्टीमार्ग ईश्वर के प्रति निस्वार्थ प्रेम है । जिसे पुष्टि भक्ति कहा जाता है। कल्याणी या समाधि या मोक्ष का जो मार्ग है उसे ज्ञानी भक्ति कहते हैं । सगुण भक्ति कहते हैं।
वह (सगुण भक्ति+ श्रृंगार रस) का जो प्रयोग करते थे, वह अद्भुत थे । इधर उधर से लोग उन्हें सुनने आते थे । वह बृज भाषा के विज्ञानी थे।
इनकी 5 मुख्य रचनाये सूरसागर, साहित्य लहरी, नील दमयंती, सूर सारावली , व्याहलो है । वह जहां पर कीर्तन करते थे। वहां वह कभी अनुपस्थित नहीं होते थे।
एक दिन अचानक वह नहीं आए तो उनके शिष्यों ने सोचा कि वह अंतिम समय में है। उन्होंने ऐसा इसलिए सोचा क्योंकि वह कभी भी अनुपस्थित नहीं होते थे।
1583 में ही उनका अंतिम समय था। वह कृष्ण भक्ति का ही पाठ कर रहे थे 105 साल उनकी आयु रही और उन्होंने अपने शिष्यों को भी कृष्ण भक्ति का गुणगान करने का आदेश दिया।
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