घटस्थ योग (स्थूल शरीर को जानना)

घटस्थ योग : घट का अर्थ होता है घड़ा । जब हम घड़े की कल्पना करते हैं तो मिट्टी से बनी एक आकृति मानस पटल में उभरती है। हम इसकी बहाए आकृति को देखते हैं पर हमे यह मालूम नहीं रहता। उसके अंदर क्या भरा है हो सकता है कि उसमें पानी भरा हो अन्य भरा हो घड़े के भीतर कोई भी चीज हो सकती है।

लेकिन कहने से केवल बाह्यआकृति का ज्ञान होता है। घटस्थ योग शरीर पर आधारित है। शरीर को हम देखते हैं इसका अनुभव हमें होता है। लेकिन सूक्ष्म शरीर को हम अपने नेत्रों से नहीं देख सकते। उसे सुखी और संतुष्ट बनाने के लिए कर्म या तुषाद करते हैं।

शरीर को ठंड लगती है तो कपड़े पहनते हैं। गर्मी लगती है तो उतार देते हैं। शरीर आराम चाहता है तो सोते हैं। शरीर के इन क्रियाकलापों को तो हम अनुभव करते हैं लेकिन शरीर के भीतर और कौन-कौन से तत्व हैं यह कोई नहीं जानता।

हमारे शरीर के भीतर और कौन-कौन सी शक्तियां हैं इसे जानने के लिए हमें सप्त साधन के मार्ग से गुजारना पड़ता है। शरीर की रचना एक विचित्र संयोग से हुई है। सहयोग को आप चाहे प्रकृति कह सकते हैं चाहे ब्रह्मा, चाहे ईश्वर कह सकते हैं ।

सप्त साधन


अर्थात शरीर की शुद्धि के लिए ये 7 साधन बताए गए हैं ।

  1. शोधन
  2. दृढ़ता
  3. स्थैर्य
  4. धैर्य
  5. लाघवम
  6. प्रत्यक्ष
  7. निर्लिप्त

शोधनम

जिसका अर्थ है शुद्धिकरण शरीर और मन को विकार रहित बनाने के लिए शुद्धीकरण आवश्यक है।

दृढ़ता

कुछ लोग दृढ़ता का अर्थ लगाते हैं शक्ति से दृढ़ता का अर्थ यहां पर केवल शारीरिक शक्ति से नहीं अपितुधैर्य मानसिक और भावनात्मक स्तर से है ।

स्थैर्य

=स्थिरता से तात्पर्य महर्षि पतंजलि ने योग सूत्र में इसका वर्णन किया है। स्थिर सुख आसनम अर्थात उन्होंने शरीर से संबंधित स्थिरता का वर्णन किया है। आसन में किसी प्रकार का तनाव ना होने देना है आसन की स्थिरता कहलाती है। सहज भाव से आसन होने चाहिए । यही उद्देश्य यहां पर भी अपनाया गया है शारीरिक स्थिरता प्राप्त करना आवश्यक है।

धैर्य

यह भी एक गुण है जो व्यक्ति को परिस्थितियों से प्रभावित करता है। व्यक्ति को अपना धैर्य नहीं खोना चाहिए । व्यक्ति को सहनशील होना चाहिए। क्योंकि शरीर तो धैर्य होता ही नहीं मन धैर्य होता है।

लाघवम

लाघवम से तात्पर्य हल्के पन से होता है योगी का शरीर हल्का होना चाहिए भारी नहीं होना चाहिए । क्योंकि चर्बी युक्त शरीर में बाधक तत्व का कार्य होता है तथा शरीर में आलस्य की उत्पत्ति होती है।

प्रत्यक्षम

प्रत्यक्षम से तात्पर्य प्रति + अक्षम से है प्रति का अर्थ है सामना सम्मुख और अक्षम या आंखें या नेत्र इसका अर्थ है ग्रहण शीतलता या ग्रहण करने से सूक्ष्म या आंतरिक अनुभवों को ग्रहण करना। उसे मन की दृष्टि में स्पष्ट व प्रत्यक्ष करना ही प्रत्यक्षम कहलाता है।

निर्लिप्त

निर्लिप्त ना होना इतना होने से आशय जीवन शरीर विचार शासन और विकार से आत्मज्ञान को पहचानना समाधि की अवस्था प्राप्त करना ही निर्लिप्त का कार्य है।

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