शंख प्रक्षालन (वारिसार धौति) :-
शंख प्रक्षालन क्रिया के माध्यम से शरीर के भीतर के सारे विषाक्त तत्व नमकीन जल की सहायता से बाहर निकल जाते है। इस क्रिया से शरीर का पुनः नव निर्माण हो जाता है। वारी का मतलब होता है जल, सार का अर्थ होता है तत्व और धौति का अर्थ होता है धोना । इसलिए इसे वारिसार (शंख प्रक्षालन) भी कहते है। इसे काया कल्प नाम से भी जाना जाता है।
घेरण्ड सहित सहिता के अनुसार वारिसार अंत धौति की दूसरी क्रिया है। इससे दूषित वायु का निष्कासन होता है। इस धौति के माध्यम से पेट के अंदर से उन विषाक्त तत्वो का निष्कासन किया जाता है जो मल के रूप में शरीर मे जमा हो जाते है। इस प्रक्रिया में अन्न नली के आरंभ से लेकर गुदा मार्ग की सफाई की जाती है।
पाचन तंत्र की शारीरिक सरंचना –
सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि हमारे पेट और आंतों की बनावट कैसी होती। आंतो की बनावट केंचुए की तरह होती है। केंचुए के शरीर मे वृत्त के आकार की गोल गोल अनेक मांसपेशियां होती है। केंचुआ कैसे चलता है यह भी आपने देखा होगा। वह धीरे धीरे सरक सरक कर चलता है। यानी वह आगे बढ़ने के लिए उन्ही मासपेशियों का प्रयोग करता है। ठीक उसी प्रकार हमारी मांसपेशियां भी है।
आँत कोई चिकनी मांसपेशी नहीं है, और न ही हमारा पेट चिकना है । उसमें भी बहुत-सी परते हैँ। संकुचन के कारण एक मांसपेशी दूसरी के ऊपर चढी रहती है और इस प्रकार वे उभरी हुई परतों के रूप में रहती हैं।
सफाई का महत्त्व –
बहुत बार ऐसा होता है कि अन्न के कण मांसपेशियो की परतों के बीच घुस जाते हैं और वहां पर सडने लगते हैं l इतना ही नहीं, शरीर को अन्न से जितना पोषक तत्त्व ग्रहण करना होता है, उससे अधिक मात्रा में आमाशय में ग्रहण हो जाता है और शेष छोटी आँत द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है। इसी बीच पाचक द्रव्यों के मिलने के कारण अन्न धीरे-धीरे विघटित होता और मल बनता है I जब अन्न मल के रूप मेँ परिणत होता है, तब हमारे पेट में जितने अतिरिक्त पाचक द्रव रहते हैं, वे उस मल के साथ मिल जाते हैं l वह मल भी आँतों मे बहुत जगह फस जाता है और वहीं पर सड़ता रहता है।
पैदा होने के समय से आज तक हमने अपनी आँतों को साफ नहीं किया है । दिन में दो-चार लीटर पानी पीने के बाद भी पेट और आँतो की सफाई नहीं होती, क्योकि पानी तो आँत से होकर वृक्क की ओर चला जाता है । मल द्धार से तो नहीं निकलता, वह तो पेशाब के रूप में निकलता है । इस प्रकार जन्म से आज तक हमने अपने पेट और आँतों की सफाई नहीं की है । आँत की लम्बाई भी बहुत होती है । शरीर शास्त्री कहते है कि हमारी आँत लगभग 22 फुट लम्बी है, जो सिकुड़-सिंमट कर, उतने ही क्षेत्र में दबी है। आप क्या कीजिए कि यदि आँत की लम्बाई 22 फुट है और उसे मोडकर, सपेटकर हम लोग इतने-से क्षेत्र में भर दे तो उसमें कितनी परतें होगी । यहॉ पर अत्र और मल दोनो रुकते हैं । उन्हे मांसपेशियो की इन परतों के बीच से निकालना भी बहुत कठिन हो जाता हैँ । सामान्य तरीके से तो आज तक कोई निकाल नहीं पाया है ।
इसका उपाय षटकर्म मे बतलाया गया है कि पानी के माध्यम से पेट और आंत की सफाई हो सकती है । जब मल या सडे हुए अन्न कण हमारे पेट में मांसपेशियो की परतों के बीच चिपके रह जाते है, तब वहाँ पर सडन होने लगती है । मांसपेशियाँ कमजोर पड़ जाती हैं। मांसपेशियो की जितनी नलिकाएँ हैं, वे भी प्रभावित होने लगती हैं । जो रक्त वहॉ से बहता है, वह भी दूषित होने लगता है, क्योकि उस पर विष का प्रभाव पडता है। हमारे पेट मे जो द्रव या हार्मोन हैं, वे साधारण नहीं हैं, वे बहुत-ही शक्तिशाली हैं। पित्त का ही उदाहरण ले जब किसी को पित्त की शिकायत होती है, तब उसकी छाती और गले मे भयकर जलन होने लगती है । एक-एक हार्मोन बहुत शक्तिशाली होता है और वह मांसपेशियाँ द्वारा सोख लिया जाता है, जो मांसपेशियाँ और रक्त वाहनियो को ढीला, कमजोर एवं व्याधिग्रस्त बना देता है । जिसके कारण पेट सम्बन्धी अनेक रोग उत्पन्न होते हैं । उनमें से कुछ तो भयकर रोग मे परिणत हो जाते हैं।
यह भी देखा गया है कि तरलता के अभाव में मल हमारी आँतो में सुखने और कडा होने लगता है । मल जब कड़ा होता लगता है तब मांसपेशियो के साथ चिपक जाता है और तब उसे दूसरे प्रकार के आहार द्वारा हटाया जाता हैं तब मांसपेशियो मे खरोच आती है। इतना ही नहीं कब्ज की बीमारी अधिकतर बडी आँत मे ही होती है I छोटी आँत मे आज तक कब्ज की शिकायत नहीं देखी गयी है।
इंग्लैण्ड में एक व्यक्ति पर परीक्षण क्रिया गया था । एक साल तक वह व्यक्ति’ शौच नहीं गया । जिस दिन से उसने शोच जाना बन्द क्रिया, उसी दिन से डाक्टरों ने उसका लेखा-जौखा रखना शुरू क्रिया। ठीक एक साल बाद वह शौच गया, और 35 किलो मल निकला। इसका मतलब यह नहीं कि उसका पेट फूल गया होगा।
नहीं, मल अपने आप में ही ठोस होता गया, जिससे उसकी भूख मर गयी । आलस्य, प्रमाद और निद्रा में वृद्धि हो गयी । उसकी मानसिक स्थिति विक्षिप्त, क्षुब्ध और बेचैन हो गयी और एक साल बाद जब उसका एक्स-रे लिया गया, उसमें दिखायी दिया कि पूरी बडी आँत मल से भरी हुई हैँ । बाद में एनिमा देकर, ग्लिसरीन पिलाकर मल शरीर से बाहर निकाला गया और उसके दूसरे ही दिन व्यक्ति हलकेपन और स्कूर्ति का अनुभव करने लगा। उसका मस्तिष्क एकदम ठीक हो गया। मानसिक विकार इत्यादि दूर हो गये।
यह एक उदाहरण था, यह बतलाने के लिए कि कब्ज शिकायत पेट में नहीं, छोटी आँत नहीं, बडी आँत में होती है और उसे इस क्रिया से ठीक करना बहुत ही सरल है ।
अभ्यास के पूर्व तैयारी
संध्या को हल्का भोजन करना चाहिए। जैसे फल या खिचडी खाना ही श्रेयस्कर होगा । वारिसार धौति के दिन सुबह आसनों का अभ्यास न करें और वारिसार धौति के पूर्व सुबह चाय-नाश्ता या किसी प्रकार का भोजन न तैयार करें । क्रिया करते समय हल्के ढीले, कम व सुविधाजनक वस्त्रो का प्रयोग करना चाहिए।
जल तैयार करने की विधि –
एक बाल्टी में गरम पानी लीजिए और इसमे ठण्डा पानी मिलाते हुए इस पानी को कुनकुना कीजिए । पानी इतना गरम हो, जिसे आप आसानी से पी सकें । कुनकुने पानी में इतना नमक मिलाइये कि पानी में खारापन आ जाए, बहुत अधिक नमकीन न हो । नमक को घुल जाने दीजिए। नमक में यदि कचरा हो तो स्वच्छ कपड़े मे नमक डालकर उस कपडे को पानी में धो डालिए, नमक घुल जायेगा और कचरा निकल जायेगा।
स्थान एवं वातावरण –
आँगन वारिसार धौति के लिए सर्वोत्तम स्थान हैं, गार्डन या बरामदा, जिससे कि आपको शुद्ध वायु मिलती रहे । स्थान के चुनाव के समय आपकी शौचालय की निकटता का ख्याल रखना होगा।
शंख प्रक्षालन की विधि –
पहले दो गिलास कुनकुना, नमकीन पानी ज़ल्दी-जल्दी, बिना रुके पिते हैं, ताकि पानी नीचे आँत में न चला जाये । यदि आप रुक रुक कर पियेंगे, तो क्रिया ठीक से नहीं हो पायेगी। उसके बाद पानी को उदर में घुमाने के लिए नीचे वर्णित
पॉच आसन द्रुत गति से करते हैँ, जिससे पानी पेट से नीचे उत्तर जाता है । फिर और दो गिलास पानी पिते हैं । पुन: इन पांच आसनों को करते हैं । प्रत्येक आसन आठ बार क्रिया जाता है । पानी फिर नीचे जाता है । फिर दो गिलास पानी पिते हैं, वह फिर नीचे जाता है । उसी प्रकार छ: गिलास पानी पीने और प्रति दो गिलास के पश्चात् आसन करने के बाद शौच चले जाते है।
शौच के लिए दो मिनट से ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी है। वहॉ पर रुकना नहीं है, क्योकि उससे पेट कें अन्दर दबाव समाप्त हो जायेगा । यदि मल न निकले तो जोर नहीं लगाना है । पुन: दो गिलास पानी पीकर और आसन करके फिर शौच जाना है । यदि दबाव न बना हो तो रुकना-नहीं है, फिर आकर पानी पीना है और आसन करने हैं। तब तक पानी पीते और आसन करते जाते हैं, जब तक स्वच्छ प्रानी बाहर न निकले ।
पहले तो साधारण मल त्याग होगा, उसके बाद पतला मल निकलेगा । उसके बाद पीले रंग का पानी निकलेगा, जो पित्त को निकालता है । पीले रंग के पानी के साथ मल के वे कण निकलेगे , जो इधर-उधर छुपे रहते हैं । इस प्रकार करते-करते फिर आपको मल के छिलके, जो अन्दर चिपके रहते हैं, दिखलायी देने लगेगें । कई रंगों के छिलके दिखायी देगे । काला, भूरा, गुलाबी, लाल-यह आपके भोजन पर निर्भर है ।
लगभग 16 या 20 गिलास पानी पीने के बाद एकदम स्वच्छ जल निकलता है। पेट मे जितना श्लेष्मा और चिकनाई रहती हैं, वे सब निकलती हैं। जब साफ पानी निकलने लग जाय तब क्रिया समाप्त कर देनी चाहिए । कुछ लोग 16 गिलास में क्रिया को पूरा कर लेते हैँ, कुछ लोगों को अधिक पानी पीना पडता है । अधिक से अधिक 20 गिलास पानी पीना चाहिए उसके बाद पानी पीना रोक दें।
शंख प्रक्षालन के आसन तथा उनकी विशिष्टताएँ – अग्र लिखित वर्णित आसन दिए हुए क्रम में किये जाने चाहिए, क्योकि प्रत्येक आसन छोटी आँत का विस्तार कर, उसकी दीवारों को फैला कर उसमें जमे मल को नीचे की ओर ढकेलता है।
शंख प्रक्षालन के लिए आसन
1. ताड़ासन
जब हम ताडासन॰ का अभ्यास काते है, तब हमारी अन्न नलिका, पेट और आंतो का विस्तार होता हैं । ये फैलते हैं । पेट और संग्रहणी के बीच मांसपेशियो का जो वॉल्व है, जिसे पाइलोरिक वाल्व” कहते हैं, वह खुलता है, तो जल वहॉ से गुजरता है और छोटी आँत मे पहुँच जाता है । अत: जब ताडासन. का अभ्यास करते हैं तब मांसपेशियो की परते धीरे धीरे खुलने लगती हैं ओंर पानी वहाँ प्रवेश करता है ।
आसन विधि –
अपने पैरो के बीच 10 सेंटीमीटर का फासला बनाकर खड़े हो जाइये । शरीर के भार को दोनों पैरो पर समान रूप से डालते हुए शरीर को स्थिर बनाइये। हाथों की अँगुलियों को आपस मे फँसाकर सांस लेकर भुजाओं को सिर के ऊपर तान लीजिए।
हथेलियां ऊपर की और रहे। अपने सामने किसी एक स्थान पर दृष्टि स्थिर कर लीजिए । जित्तना हो सके, शरीर को ऊपर की ओर तानिये । एडियो को उपर उठाते हुए शरीर का भार पैरों की अंगुलियो पर दीजिए।
आरम्भ मे शरीर में सन्तुलन स्खना कठिन होगा, परन्तु अभ्यास के बाद यह सम्भव होगा । इसके लिए जरूरी है कि आप अपनी दृष्टी को एक स्थान पर स्थिर रखें। इसी अवस्था में कुछ देर रुकिये, फिर सांस छोड़ते हुए नीचे आ जाइये।
2. तिर्यक ताडासन
तिर्यक ताडासन में हम अपने शरीर को दाँये –बायें झुकाते हैं । शरीर के एक ओर का विस्तार ओर दूसरी और का संकुचन होता है । जब सीधी अवस्था में शरीर, एक तरफ तनता और झुकता है, तब उधर जितनी परते रहती हैं, वे भी फैलती है और दुसरी और संकुचित हो जाती हैँ । इस प्रकार आँतो की परतें बारी-बारी से फैलती और सिकुड़ती है, जिससे जल धक्के के साथ एक से दूसरी, दूसरी से तीसरी परत में प्रवेश करता है और परतों के भीत्तर से सड़े हुए अन्न कणों को निकालता है । सूखे हुए मल को निकालता है।
आसन विधि –
दोनों पैर एक-दूसरे से लगभग ढाई फीट दूर रखकर खड़े हो जाइये । दोनों हाथो को ताडासन की तरह सिर के ऊपर उठाइये। दृष्टि को सामने किसी वस्तु पर या जमीन पर स्थिर कर लीजिए। हाथों को ऊपर तान कर रखिये । कमर से ऊपर शरीर को दाहिनी ओर मोडिये, फिर बाँये मोडिये । यह एक आवृति हुईं कमर से ऊपर धड़ को जितना दाहिने तथा बाँये झुका सकते हैं, झुकाइयें। शरीर एव सिर को सामने की ओर न झुकने दें।
3. कटि चक्रासना
कटि का अर्थ है कमर तथा चक्र का है वृत्त या घुमाना । इस आसन मेँ शरीर को कमर के पास से घुमाया जाता है । इसलिए इसे कटि चक्रासन कहते हैं । सम्पूर्ण शारीरिक गतिविधि बिना शारीरिक गतिविधि बिना शारीरिक जोर लगाये सोम्यता पूर्ण सम्पन, हो इसका ख्याल रखे।
आसन विधि –
पैरो के बीच दो-तीन फुट की दूरी रखकर खड़े हो जाते है I कन्धों की ऊँचाई पर भुजाओं को बगल मे फैलाते हैँ। पहले शरीर को कमर के ऊपरी भाग के पास से दायी ओर मोडते हैं, लेकिन पैर अपने स्थान पर ही रहे अर्थात् पैरो से कोई गतिविधि न हो । बयाँ हाथ सामने से दायें कंधे पर एवं दायाँ हाथ पीछे की तरफ घूमता हुआ धड़ से लिपट जाये । पूरे अभ्यास के दोरान भुजाएँ तथा पीठ यथासम्भव शिथिल रहे I जब शरीर पूरी तरह घुमा लें, तब सिर को भी ठीक उसी दिशा में यथम्सम्भव घुमायेँ, जिस दिशा में पीठ को घुमाया है । अत: अन्तिभ अवस्था मे आपकी शारीरिक स्थिति इस प्रकार होंगी – बायां हाथ दाहिने कंधे पर रहेगा तथा दाहिना हाथ कमर के बाये हिस्से का स्पर्श करता रहेगा । अब दाहिने कंधे के ऊपर से यथासम्भव पीछे को ओर देखे । इसके पश्चात् शरीर को विपरीत दिशा मे’ घुमायें ।
इससे शरीर का पूरा सचलन हो जाता है; शरीर पूर्ण रूप से मुडता है । मुडने पर पेट और मासपेशियाँ निचुड़ती हैं। इस निचोड़ के कारण पानी और दबाव आपस मे मिलते हैं; धवका लगता है।
4. तिर्यक भुजगआसन
यह आसन भुजगआसन ही प्रकारान्तर है। इसमे भी पेट और छाती का निचोड होता है तथा छोटी आँत और बडी आँत के बीच का पट, जिसे इलियोसीकल वाल्व कहते है, वह खुलता है, ताकि जल बडी आँत में प्रवेश कर सके।
आसन विधि –
जमीन पर पेट के बल लेट जाइये। पैर के पजे जमीन के सम्पर्क में रहें। अपने सुविधा अनुसार पैरों को अलग-अलग अथवा सटाकर रख सकते हैं । हाथों को पुट्ठो के ठीक नीचे तथा बगल मे जमीन पर रखे।
( अर्थात हाथ एक-दुसरे से लगभग आधा मीटर दूर रहे ।) भुजाओं को सीधा करें तथा कंधो एवं शरीर को ज़मीन से ऊपर उठायें। पीठ को शिथिल एवं निश्वेष्ट रखें। शरीर को ऊपर उठाने के साथ ही पीठ को हलका-सा दाहिनी ओर मोडे । अब सिर को मोड़े तथा दाहिने कंधे के ऊपर से पीछे की ओर बायीं एडी की और देखें । अन्तिम अवस्था मेँ भुजाएँ पूर्णत: सीधी रहे । अन्तिम अवस्था में बिना जोर…जबरदस्ती के सिर तथा पीठ को अधिकतम मोडने का प्रयास करे ।
साथ ही नाभि को यथासम्भव जमीन के निकट रखने का प्रयास करे । तत्पश्चात् पुन: सामने देखें । भुजाओं को मोड़ ले तथा शरीर को नीचे ज़मीन पर ले आये । अब पुन: इसी प्रक्रिया को दोहरायें, लेकिन इस बार पीठ और सिर को बायी ओर मौड़े तथा बायें कंधे के ऊपर से दाहिनी एडी को देखे । इसे पूरा का लेने के पश्चात् आरम्भिक अवस्था में लोट आयें। यह एक आवृति हुई ।
श्वास – प्रारम्भिक अवस्था मे सहज श्वास-प्रश्वास करें । शरीर को ऊपर उठाते हुए श्वास लें । अन्तिभ अवस्था मे’ श्वास रोकें। शरीर को जमीन पर वापस लाते हुए श्वास छोडे।
5. उदराकर्षण
उदर का अर्थ होता है पेट तथा आकर्षण का अर्थ है खींचना या मालिश करना। इस आसन के दौरान पेट की मांसपेशियो में खिचाव पैदा होता है और उनकी अच्छी मालिश होती है I चूँकि इस आसन के दौरान पाचन अंगो स्नायुओ तथा मांसपेशियो का क्रमिक संकुचन एवं प्रसार होता है, इसलिए यह पेट सम्बन्धी व्याधियों के उपचार हेतु विशेष और प्रभावकारी है।
आसन विधि –
दोनों पाँवो को एक-दूसरे से आधा मीटर दूर रखते हुए उकडू बैठ जाते हैं । हाथों को घुटनों पर रखते हैं । धड़ को कमर के पास जितना सम्भव हो दाहिनी ओर मौडते हुए पीछे की ओर देखते है। साथ-ही-साथ बायें घुटने को जमीन पर झुकाते हैं। पुरे अभ्यास काल में हाथों को घुटनों पर रखे । सिर को पीछे की और यथासम्भव मोड़े तथा दाहिने कंधे के ऊपर से पीछे की ओर अधिकतम दूरी तक देखे। पीठ को शिथिल रखें । इसके बाद प्राम्भिक स्थिति में लौट आयें । श्वास-प्रश्वास की गति सामान्य रहेगी । फिर इसी क्रिया को विपरीत दिशा में करे । यह एक आवृति हुई। इस आसन से जल बड़ी आँत में संचालित होता है तथा मल को धवका देकर बाहर निकालता है I
इन अभ्यासों मे यह प्रयास किया गया है कि पानी पेट और आँतो में पूर्ण रूप से हिले और दबाव बनकर बाहर निक्ले । इस क्रिया का दूसरा नाम है शंख प्रक्षालन । हमारे पेट की आकृति एक शंख के समान है । जिस प्रकार शंख मेँ पानी डालकर, पानी को उसमे घुमा-घुमाकर उसे साफ किया जाता है, ठीक उसी प्रकार पेट और आँतो में पानी भरकर उन्हे घुमा-घुमाकर साफ करने के कारण इस क्रिया का नाम शंख प्रक्षालन पडा है ।
शंख प्रक्षालन अर्थात वारिसार धौति के समय हम जो पानी पीते हैं, वह ठण्डा नहीं होता, क्योकि यह देखा गया है कि ठण्डा पानी वृवक मार्ग में प्रवेश कर जाता है ।
पानी ठण्डा होने के कारण आँतों का विस्तार नहीं होता । आँतो की पेशियाँ फैलती नही बल्कि संकुचित्त हो जाती हैं, इसलिए ठण्डे पानी से इसका अभ्यास करने में बहुत-हो कठिनाई होती है। इसी कारण ठण्डे पानी को वर्जित माना गया है । गरम पानी भी वर्जित है, क्योकि यदि पेट मेँ फोड़े-फुन्सी हो तो गरम पानी से उनके फटने का डर रहता है, और यदि वे फट जायेँ त्तो पेट ठीक ढंग से साफ नहीं होगा, क्योंकि यदि प्रक्रिया के बाद कुछ विषाक्त पदार्थों के अवशेष अन्दर जायेंगे, तो वहीं पर, घाव के पास जमने लगेगे । इससे बिष हमारे शरीर में फैलेगा । इसलिए नमक मिले कुनकुने पानी का प्रयोग किया जाता है ।
नमक मिलाने के पीछे भी एक कारण है । जब हम प्रानी में नमक मिलाते हैं, तब वह अशोष्य बन जाता है; शरीर उसे सोख नहीं पाता । साधारण पानी पीयेगे तो वह मांसपेशियो द्वारा खींच लिया जाएगा । यदि नमक डालकर पीते हैं, तो मांसपेशियां पानी को नहीं सोखती और वह बाहर निकलता निकलता है । इसलिए नमक मिलाना अत्यावश्यक है ।
यह भी स्मरण रखना है कि जब हम पानी पीयें, तब इतना न पीयेँ कि उल्टी करने की इच्छा हो । इस मन्त्र में तो लिखा है, ‘आकपठं पूंरयेद्वारि’…कंठ तक पानी पीना है, लेकिन इसमे’ कंठ तक नहीं पीते हैं ।
विश्राम के समय बहुत सावधानी बरतनी चाहिए। मानसिक तनाव या तनावपूर्ण परिस्थिति से बचना चाहिए।
अभ्यासोंपरान्त भोजन –
पैंतालिस मिनट तक शवासन के अभ्यास के पश्चात् खिचडी खाते हैं। शंख प्रक्षालन के बाद पाचन-प्रणाली पर अधिक भार न पड़े इसलिए हलका भोजन करना ज़रूरी है और खिचडी बहुत हलकी तथा सुपाच्य है । अच्छे साफ चावल और मूंग की धुली दाल की खिचडी बनाई जाती है । उसे पानी की तरह पतला बनाते है और उसमे घी अधिक मात्रा में मिलाते हैं l घी को खिचडी में एकदम मिला लेना चाहिए घी अलग से तैरता हुआ नहीं दिखना चाहिए। खिचडी मेँ हल्दी भी डाली जा सकती है, मगर नमक नहीं मिलाना उत्तम है। उस खिचडी को आवश्यकता से अधिक खाना आवश्यक है,
क्योकि इस अभ्यास के पश्चात् पेट पूर्णतया खाली हो जाता है । अब हम खाली पेट खिचडी, और खिचडी में जो भी घी है, उसे खाकर पेट और आंतो मे पुन: चिकनाई ला रहे हैँ, जो गरम पानी के कारण निकल गयी है । यदि एक तेल वाले बर्तन में गरम पानी डालते जायेँ, तो वह साफ़ होने लगता है । ठीक उसी प्रकार हमारे भीतर का सारा श्लेष्मा निकल जाता है, इसलिए अधिक मात्रा मेँ खिचडी खानी आवश्यक है । जब तक कण्ट तक न भर जाय, तब तक खिचडी खाते जाना है । पर पानी किसी हालत में नहीं पीना है । यदि पानी पीना ही पड़े, तो एक-दो घूट” गरम प्रानी पी सकते है।
भोजनोपरान्त विश्राम –
भोजन के बाद विश्राम लेना ज़रूरी है, परन्तु कम-से कम तीन घण्टे सोना नहीं है । यदि आप सोते हैं तो बाद मे आपको बहुत आलस और शरीर में भारीपन का अनुभव होगा। यदि आप तीन घण्टे नीद को रोक लेगे तो आपको इस क्रिया का पूर्ण लाभ मिलेगा । तीन घण्टे तक खिचडी पचना जरूरी है। उसके बाद आप सो सकते हैं।
बहुत बार ऐसा भी होता है कि शंख प्रक्षालन के बाद दो-तीन दिनों तक शोच नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीँ कि आपको कब्जियत हो रही है । इसका अर्थ होता है कि पेट एकदम खाली है और अभ्यास के बाद 22 फुट लम्बी आंत में खिचडी या भोजन जो आप करते हैँ, उसकी यात्रा में बहुत समय लगता है । इसलिए शौच हो या न हो, घबराने की आवश्यकता नहीं ।
वारिसार धौति को सम्पूर्ण क्रिया दो दिन में पूरो होती है, परन्तु व्यावहारिक रूप से दो-तीन घण्टे इसको पूरा करने में लगते हैं । क्रिया के बाद दो दिन विश्राम करना चाहिए। यदि यह सम्भव नहीं, तो इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए।
भोजन के नियम –
यहॉ दिये गये शंख प्रक्षालन के नियमो का दृढता से पालन करें । यदि आप ऐसा करने मे’ अपने को असमर्थ पाते हैं, तो शंख प्रक्षालन न करे । सात दिन तक दूध या दूध से बनी चीजें, मक्खन, मलाई, मिठाई, चाय, काफी, नीबू फल, पान, बीडी, सिगरेट, तम्बाकू खैनी, जर्दा और इसी प्रकार की नशीली वस्तुएँ सुपारी आदि वर्जित हैं। भोजन मे तेल-मसाले-मिर्च, आचार, पापड़, चटनी न ले । सात्विक सादा भोजन हो । विशेषत: फुल्के , खिचडी, दालभात, यही खायें । जितना हलका भोजन क्ररेगे” उतना ही अच्छा है,
शंख प्रक्षालन के बाद पेट एक नवजात शिशु के पेट की तरह नाजुक और संवेदनशील हो जाता है । चालीस दिनों तक किसी प्रकार की एलोपैथिक दवाई न ले ।शंख प्रक्षालन का उद्देश्य है शरीर मे व्याप्त विषाक्त तत्वों तथा आमाशय मे’ एका मल को बाहर निकालना । अत: इन नियमो” का पालन कर इससे अधिक लाभ उठाया जा सकता है।
समय एव आवृति – शंख’ प्रक्षालन के अभ्यास के लिए मौसम का बहुत अधिक महत्व है । वहुत ठण्डे मौसम मेँ इसका अभ्यास वर्जित है । उसी प्रकार बहुत अधिक गरमी होने पर भी इस क्रिया को नही करना चाहिए। इससे शरीर से बहुत पसीना निकलेगा। बादल होने पर भी यह अभ्यास न करे । आसमान एकदम खुला होना बहुत जरूरी है। छ-छ: महीनो के अन्तराल मे साल में केवल दो बार इसका अभ्यास काना चाहिए
सावधानियाँ –
वारिसार एक गुप्त क्रिया है। गुप्त इसलिए है कि इसकी विधि बहुत लम्बी है और इसे सब नहीँ जानते । योग्य शिक्षक से प्रत्यक्ष शिक्षा प्राप्त किये बिना इस क्रिया को न करें। गलत रीति से किये जाने पर इससे लाभ के बदले हानि होने की सम्भावना होती है। इसका अभ्यास खाली पेट होना चाहिए क्योकि यदि पेट खाली हो तो जल के निष्कासन में बहुत सुविधा होती है । यदि पेट भरा हो और पाचन-प्रक्रिया शुरू हो गयी हो तो जल का निष्कासन ठीक से नहीं होगा, बल्कि इससे हानि की भी सम्भावना है। इसलिए खाली पेट रहना आवश्यक है । अभ्यास के बाद तीन घण्टे तक नहाना वर्जित है । शरीर के तापमान को पुनः
सामान्य बनाना आवश्यक है । यदि आप शंख प्रक्षालन के तुरंत बाद स्नान करेंगे तो सम्भवत: ठण्ड लग जाये और सर्दी हो जाया इसलिए तीन घण्टे तक स्नान नहीं करना, पखा’ नहीं चलाना और ठण्डा पानी नहीं पीना है, चाहे कितनी ही प्यास क्यों न लगे । यदि आप ठण्डा पानी पीयेगे तो इतनी देर गरम पानी जो आपके शरीर मेँ रहा, उसकी गरमी और ठण्डे पानी के तापमान मे अन्तर पड़ जाता है । दूसरी वात, क्रिया के बाद आपका पेट एकदम खाली होता है, अत: पाचन –प्रणाली एकदम शान्त रहती है और नवीन पाचक रस उत्पत्र होते हैं, इसलिए तीन घंटे तक शरीर मे पानी की मात्रा नहीं लेनी चाहिए। यदि अभ्यास के समय बहुत ठण्ड पड़ रही हो त्तो अभ्यास के बाद शरीर के आन्तरिक तापमान को बनाये रखने के लिए कम्बल ओढ़ सकते हैं। किन्तु तपती धूप में या आग के पास नहीं बैठना चाहिए और शारीरिक व्यायाम भी नही करने चाहिए।
उच्च रक्तचाप, चक्कर आना, मिर्गी, हदय रोग, ड्यूडिनल अल्सर, हर्निया या खूनी बबासीर से पीडित व्यक्तियों को इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए। पन्द्रह साल की अवस्था के बाद जब शरीर स्वस्थ रहे तब इसका अभ्यास किया जा सकता है । इसके लिए कोई ऊपरी आयु सीमा नहीं है, लेकिन शारीरिक सामर्थ्य को देखना आवश्यक है।
लाभ –
यह देह को निर्मल करती है । देह को मल से शुद्ध क्रिया जाता है, विकारों से शुद्ध क्रिया जाता है । व्यक्ति देवता के समान दिव्य, कान्तिमात् ओजस्वी और हलका शरीर प्राप्त करता हें। इस क्रिया द्वारा शरीर को सभी रोगों से मुक्त रखा जा सकता है ।