भक्ति का अर्थ
पूजन , वंदना, संगीत, अर्चना करने वाले यह सभी भक्त कहलाते हैं। भजना कर्म करना भगवान की सेवा करना, यह मनुष्य की आवश्यकता है भक्ति की आवश्यकता है जोड़ना, परमात्मा के साथ जुड़ाव को भक्ति योग कहते हैं।
भक्ति की परिभाषा
जिस कर्म के अनुसार अपने इष्ट की सेवा की जाए उसे भक्ति कहते हैं।
सृष्टि के प्रारंभ से ही व्यक्ति भक्त और भगवान की यह परंपरा चलती आ रही है। व्यक्ति किसी न किसी को अपना गुरु मानता है और अपने गुरु की अर्चना पूजा करता है।
लेकिन भक्तों के वर्तमान स्वरूप को देखते हुए संपूर्ण भाव विकृत हो चुका है। भक्तों का सार बदल दिया गया है। यह व्यवसाय के रूप में प्रचलित कर लिया गया है। भक्ति का स्वरूप कहीं छुप सा गया है भक्ति के माध्यम से भक्तों को डराया जा रहा है।
भक्त के प्रकार
श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार चार प्रकार के भक्त चार प्रकार के होते है
1 आर्त –
जो भक्त भगवान के पास जाते हैं और बाद में भगवान को भूल जाते हैं यानी जब मनुष्य को दुख होता है तो वह भगवान को याद करता है और सुख होने पर भगवान को भूल जाते हैं यह अच्छी भक्ति नहीं है इससे आर्त भक्ति कहते हैं।
2 अर्थाती –
सभी चीजों की कामना करना लालसा अर्थ पुत्र की लालसा की प्राप्ति, धन की प्राप्ति, रात से कब प्राप्ति को बढ़ावा देना कैसे भक्त भगवान के पास हमेशा कुछ ना कुछ प्राप्त करने के लिए ही जाते हैं इसलिए ही वह भगवान की पूजा अर्चना करते हैं ऐसे भक्त भगवान को प्राप्त नहीं कर सकते।
3 जिज्ञासु
जानने के लिए जो हमेशा प्रेरित होते हैं उन्हें दिव्यांशु भक्त कहते हैं । ऐसे भक्त नई नई चीजों को जानना चाहते हैं और भगवान के प्रति अग्रसर रहते हैं यह मध्यम श्रेणी के भक्त कहलाते हैं। यह परमात्मा प्राप्ति के लिए कुछ ना कुछ जानने का प्रयत्न करते हैं।
4 ज्ञानी
उपासय और उपासक दोनों एक हो जाते हैं यानी भक्त और भगवान दोनों मिल जाते हैं व्यवस्था धर्म ज्ञान प्राप्ति अवस्था होती है, वह परमात्मा में ध्यान लगाने लगता है और केवल
भगवान की स्वरूप को ही देखना चाहता है। वह भक्त श्री भगवान को अत्यंत प्रिय है यह श्रेष्ठ भक्त है।
भक्ति के प्रकार
भक्ति दो प्रकार की होती है
परा भक्ति और अपरा भक्ति।
अपरा भक्ति के भी दो प्रकार हैं। राग आत्मक भक्ति, दूसरा नवधा भक्ति
नवधा भक्ति के प्रकार
नवधा भक्ति नौ प्रकार की होती है
- श्रवण- सुनना
- कीर्तन – भाव का अनुपालन
- स्मरण
- अर्चना
- वंदना
- दास्यभाव
- सांख्य भाव – मित्रता का भाव
- पाद सेवन – प्रभु के चरण की ओर ध्यान लगाना जिस प्रकार माता लक्ष्मी भगवान विष्णु के पैरों की सेवा करती थी
- आत्म निवेदन
भक्ति के गुण
- परमात्मा को प्राप्त करने के लिए भक्त को एकाग्र चित्त होना चाहिए
- परमात्मा प्राप्ति के लिए द्वेष से रहित होना चाहिए
- व्यक्ति अहंकार रहित होना चाहिए
- व्यक्ति को समभाव रखना चाहिए समान भाव
- करुणा भाव दया का भाव भक्तों के अंदर होना चाहिए।
- भक्त शमा शील होना चाहिए।
- निरहुआ होना चाहिए किसी भी वस्तु में भक्तों को मोह नहीं करना चाहिए।
- भक्तों को मित्रता पूर्ण व्यवहार करना चाहिए योग युक्त होना चाहिए।
- भक्तों को संतोषी होना चाहिए और घनघोर पुरुषार्थ के बाद भी संतोष होना चाहिए।
- स्वभाव पर कंट्रोल आचार विचार भय नहीं होना चाहिए।
- भावनात्मक विक्षोप नहीं होना चाहिए।