स्वामी शिवानंद (Swami Sivananda) जी का जन्म 8 सितंबर 1887 को तमिलनाडु के पट्टा मड़ाई नामक गांव में ताम्रपर्णी नदी के किनारे हुआ था। इनके पिता विंगा अय्यर माता पार्वती अम्मा के घर हुआ था । वह बचपन से ही शिव के परम भक्त थे। इनकी माता ईश्वर में श्रद्धा रखने वाली एक आध्यात्मिक महिला थी।
इनके माता-पिता इनके जन्म से बड़े खुश हुए। उन्होंने इनका नाम टप्पू स्वामी रखा। बालक का हृदय बहुत ही दयालु था। बचपन से ही इनके मन में करुणा और दया कूट-कूट कर भरी हुई थी। अपनी माता से जी चीज लेकर दरवाजे पर आए कुत्ते बिल्लियों गायों पक्षियों आदि को खिलाते रहते थे।
माता-पिता से आध्यात्मिक विचारों का कप्पू स्वामी पर विशेष प्रभाव पड़ा। जब इनके पिता शिव पूजन के लिए जाते तो, यह फूल आदि सामग्री बड़े प्यार से लाकर देते थे। इन्होंने वहीं पर स्थित राजकीय हाई स्कूल से शिक्षा प्राप्त की। कप्पू स्वामी ने अपनी कक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करते थे।
इनकी स्मृति बहुत तेज थी। जो कुछ याद करते थे, वह सदैव उनके चित्र में बना रहता था। हाई स्कूल की परीक्षा पास करने के पश्चात उन्होंने एसपीजी गहन विद्यालय में प्रवेश लिया। कॉलेज में शिक्षण के साथ-साथ यह वाद विवाद प्रतियोगिता और नाटकों में भी भाग लेते रहते थे।
1980 में इन्होंने शेक्सपियर के A Mid Summer Nights Dream नामक नाटक में अभिनय किया।कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद कपूस्वामी बंजारे में मेडिकल कॉलेज में पहुंच गए और वहां चिकित्सा शास्त्र के अध्ययन में लीन हो गए। वहां भी इनकी कुशाग्र बुद्धि सीखने की लगन और सेवा भाव से सभी चकित थे।
छुट्टियों में जब विद्यार्थी अपने अपने घरों को जाते, तब वह वही (Medical College) मेरे रहकर चिकित्सालय में भर्ती रोगियों की सेवा करते । और डॉक्टर की सहायता करते हैं। शिक्षा काल में ही यह ऑपरेशन थिएटर मैं जाकर शल्य चिकित्सा आदि में भाग लेते थे। इनकी रूचि और ज्ञान को देखकर चिकित्सकों ने इन्हें कहा कि जितना अंतिम वर्ष में छात्र नहीं जानते इतना ज्ञान तुमने अभी से प्राप्त कर लिया है।
यहां से एम. बी. सी.एस . की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात कपू स्वामी ने भी प्रैक्टिस प्रारंभ कर दी। रोगियों की चिकित्सा के साथ-साथ इन्होंने चिकित्सा से संबंधित एक पत्र का भी निकालना प्रारंभ किया। यह पत्रिका ये निशुल्क बांटते थे और इसे जनहित में अपना योगदान समझते थे।
1913 में मलाया पहुंच गए। वहां जाने के लिए इन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा। इनके परिवार वालों ने उन्हें वहां जाने की आज्ञा नहीं दी
1913 में मलाया पहुंच गए। वहां जाने के लिए इन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा। इनके परिवार वालों ने उन्हें वहां जाने की आज्ञा नहीं दी। क्योंकि यह ब्राह्मण परिवार के थे और उस समय समुद्र पार कर विदेश यात्रा पाप समझा जाता था। किंतु यह अपने निश्चय पर अडिग थे।
वह मलाया पहुंच गए । यहां इन्होंने एक राजकीय अस्पताल में नौकरी प्राप्त कर ली। इन्होंने अपने परिश्रम और सेवा भाव से शीघ्र ही ख्याति प्राप्त कर ली । यह सभी के साथ बड़े प्यार से बोलते बीमार के प्रति उनके मन में दया का भाव सदैव बना रहता।
अस्पताल के बाद कुछ समय निकाल कर यह घर पर भी गरीब और असहाय लोगों की चिकित्सा करते हैं। जिनसे वहां की जनता में उनके प्रति सम्मान के भाव का उदय हुआ। इतना सादा जीवन जीते हुए भी कप्पू स्वामी साधू सन्यासियों एवं महापुरुषों का सत्संग करते रहते हैं।
उनके प्रति उनके हृदय में सदैव सम्मान की भावना रही। एक बार एक साधु यहां ठहरे हुए थे। उसने इन्हें एक आध्यात्मिक पुस्तक दी। जिसे इन्होने शुरू से आखरी तक पढ़ा। उसको पढ़ने से इनके मन में वैराग्य भाव उदय हुआ। यह पहले से ही शंकराचार्य, रामतीर्थ, स्वामी विवेकानंद आदि का साहित्य पढ़ते रहते थे । प्रतिदिन पूजा करते थे ।
इस प्रकार इनका वैराग्य दृढ़ता से प्राप्त हुआ। साथ ही साथ योग साधना भी करते रहते थे। यह 1922 ईसवी में मलाया से वापस भारत आ गए। यहां आने के पश्चात अपना सामान घर पहुंचा कर घर के अंदर बिना प्रवेश के ही वापस हो गए और तीर्थ स्थलों के भ्रमण के लिए निकल पड़े।
इस प्रकार भ्रमण करते हुए, यह 1924 ईस्वी में ऋषिकेश आ पहुंचे और वहां स्वामी विश्वानंद सरस्वती के संपर्क में आए। स्वामी विश्वानंद सरस्वती कैलाश आश्रम में महंत थे। इन्हीं को कप्पू स्वामी ने अपना गुरु बनाया। संन्यास की दीक्षा ली। इनका नाम स्वामी शिवानंद सरस्वती रखा। तत्पश्चात स्वामी शिवानंद स्वर्ग आश्रम में रहकर साधना करने लगे।
यहां यह विभिन्न प्रकार की साधना करने लगे। जैसे वर्षा धूप में बैठे रहना, मौन धारण करना, सदा तपस्या रूपी क्रिया करते रहे कई दिन तक भूखे रहकर गंगा जल पीकर खड़े होकर मंत्र तप करना इनकी दिनचर्या थी। यह 12 -12 घंटे ध्यान करते थे।
साधना के साथ साधुओं की कुटिया में जाकर उनके निशुल्क चिकित्सा करते हैं और उन्हें अपने पास औषधियां दिया करते थे। इन्होंने मलाया बैंक से अपना जमा रुपया मंगा कर लक्ष्मण झूला के पास 1927 में एक धर्मार्थ चिकित्सालय खोला। यह सब सेवा कार्य करते हुए भी यह निरंतर योग साधना में आगे बढ़ते रहे। धीरे-धीरे इनके शिक्षकों की संख्या बढ़ने लगी।
सन 1936 में इन्होंने ऋषिकेश में दिव्य जीवन संघ डिवाइन लाइफ सोसायटी नामक संस्था की स्थापना की। इसके माध्यम से ही इन्होंने वैदिक संस्कृति का प्रचार किया। स्वामी शिवानंद, भक्ति ज्ञान और कर्म योग सभी साधनों में विश्वास रखते थे।
पूरे जीवन भर दीन दुखियों की सेवा और धर्म प्रचार के कार्यों में लगे रहे। जो भी व्यक्ति उनके संपर्क पर आया, उनसे प्रभावित हुआ। ऋषिकेश और आसपास के गांव में निवास करने वाले लोग उनके प्रति बड़ा सम्मान और प्रेम रखते थे ।
जीवन के अंत में में शरीर की कमजोरी और बीमारी के कारण आश्रम में रहकर ही संपूर्ण कार्यों का निरीक्षण किया करते थे। वे यह चाहते थे कि दिव्या जीवन संघ का अत्यधिक विकास हो। इनके शिष्य स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने बिहार योग विद्यापीठ की स्थापना की ।
श्रीमद् भागवत पर रचना की 200 से अधिक पुस्तके लिखी। जैसे Yoga for daily life, fourth power आदि पुस्तके लिखी । स्वामी जी ने 14 जुलाई 1963 में ऋषिकेश में समाधि ले ली और मोक्ष की प्राप्ति की।