नपुंसकता क्या है
नपुंसकता आज के समय मे पुरुषों में होने वाली एक ऐसी आम समस्या है यह समस्या प्रजनन प्रणाली में संरचनात्मक क्रियात्मक या मनोभावनात्मक के कारणों से आ जाती है।
साधरणतः संतान नही होने के कारणों का पता लगने पर लगभग एक तिहाई जोड़ो में पति के दोषों को उत्तरदायी माना जा सकता है। नपुंसकता शब्द को साधरणतः दो अलग अलग समस्याओं के लिए प्रयुक्त किया जाता है।
एक समस्या तो यह होती है कि जिसमें पुरुष में वीर्य या शुक्राणु उत्पादन में गड़बड़ी होती है, लेकिन लैंगिक संबंध सामान्य रूप से स्थापित किए जा सकते हैं इस पैदा हुई अवस्था को संतानहीनता (अप्रजायिता) कहते हैं।
वीर्य जांच के द्वारा इन दोषों का सहजता से पता लगाया जा सकता है। यदि गिनती में वीर्य में शुक्राणु कम है या विकृत है या गतिहीन है तो इस जांच में पता चल जाता है।
ठीक इसके विपरीत दूसरी समश्या है जिसमें शुक्राणु उत्पादन तो ठीक होता है लेकिन लैंगिक संबंध स्थापित करते समय समस्या होने लगती है इस समस्या को अंग दौर्बल्य या नामर्दी की संज्ञा दी जाती है।
पौरुषीय प्रजनन क्षमता एवं शक्ति , दोनों को पुनजागृत करने हेतु योग के अभ्यास सर्वाधिक लाभकारी सिद्ध है। यदि नपुंसकता किसी मनोवैज्ञानिक कारण, शुक्राणुओं की कमी, आदि किसी भी कारण से असंतुलन हुआ हो लगभग 6 महीने तक निरंतर योग अभ्यासो से इस समस्या को ठीक किया जा सकता है।
संतानहीनता के कारण (बच्चा ना होने के कारण)
बच्चा ना होने के कही कारण हो सकते जो अनेक रूपों में पाये जाते है।
- अनुवांशिक या संरचनात्मक गड़बड़ी के कारण,
- पुरुष शरीर में जन्म से विकृति होने से
- विकास क्रम में पौरुषीय प्रकृति का संपूर्ण विकास कहीं अधूरा रह जाने से ।
- आनुवांशिक या संरचनात्मक दोषों के अलावा
- हार्मोन्स का असन्तुलन भी एक प्रमुख कारण हो सकता है।
सम्पूर्ण अंतः स्त्रावी प्रणाली की समस्वरता इस शुक्राणु निर्माण की जटिल एवं संवेदनशील प्रक्रिया को सुचारू बनाएं रखने के लिए आवश्यक है।
इस तरह की कोई भी गड़बड़ी शुक्राणु उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव डालेगी। चाहे यह विषमता हाइपोथैलेमस या पीनीयल, पिट्यूटरी ग्रंथि से लेकर अंडकोषों में टेस्टोस्टीरोन उत्पादन तक कहीं भी हो, लक्षण एक ही होगा – अपर्याप्त शुक्राणु।
यदि दोनों अंडकोष किसी अन्य रोग से ग्रस्त हो या दुर्घटना वश नष्ट हो गए हो, तो पौरुषीय क्षमताएं दुबारा प्राप्त करना असंभव है, परंतु देखने मे यह आता है कि नब्बे रोगियों में उनकी अप्रजायिता का ठोस कारण ढूंढ पाना इतना आसान नही होता है।
न ही यह कहा जा सकता है कि उनकी समस्या का कारण अपरिवर्तनीय है। उनके उपचार के प्रति दृष्टिकोण अधिक आशावादी होना स्वाभाविक है एवं आवश्यक भी।
यह स्पष्ट होना चाहिए कि जब विकृति या दुर्घटना मात्र एक अंडकोष को ही प्रभावित करें तथा दूसरा सामान्य हो तो प्रजनन एवं लैंगिक क्षमताओं में कोई बाधा नहीं आती। एक क्रियाशील अंडकोष है सभी आवश्यकताएं पूर्ण करने में समर्थ है।
संतानहीनता (अप्रजायिता) लक्षण
जैसा कि पहले कहां जा चुका है कि हमारा शरीर मन और व्यक्तित्व हारमोंस के द्वारा प्रभावित होते हैं। यदि पुरुषों के लिए उत्तरदायी हारमोंस ( उदाहरण टेस्टोस्टीरॉन) प्रारंभ से ही उचित मात्रा में स्रावित्त नहीं होंगे तो किशोरावस्था में होने वाले परिवर्तन, जो एक बच्चे को वयस्क मैं बदल देते हैं, ठीक से नही हो पाएंगे।
नतीजन पुरुषत्व के लक्षण – जैसे, दाढ़ी मूछ आना, आवाज भारी होना, इत्यादि अपूर्ण ही रह जाएंगे। यक्ति दुबले पतले, लंबे, बिना दाढ़ी मूछों के और पतली आवाज व अविकसित जननेद्रियों तथा अपरिपक्व मानसिकता वाले पुरूष के रूप में विकसित होगा।
यदि किशोरावस्था पार करने के पश्चात पुरुष हॉरमोन गड़बड़ हुए है तथा अप्रजायिता की समस्या तदुपरांत प्रारंभ हुई है तो होने वाले लाक्षणिक परिवर्तन इतने प्रत्यक्षतः दृष्टिगोचर नही होते। शरीर का विकास सामान्य रूप से होता है तथा पुरुषत्व के लक्षण लुप्त नही होते, मात्र प्रतिक्रमण कर जाते है। बाह्य जननांग सिकुड़ जाते है तथा यक्ति को थकान लगती है, काम करने की इच्छा नहीं होती तथा कामेच्छा घट जाती है।
पुरुष की काम क्रीड़ा और लैंगिक क्षमता में योगदान नही कर पाने की स्थिति को नपुंसकता कहते है। ज्यादातर यह रोग शारीरिक कम और मनो -भावनात्मक अधिक होता है
नपुंसकता के कारण
इस समस्या के कारणों को हम मोटे तौर पर तीन वगों में विभाजित कर सकते हैं- शारीरिक , मानसिक एवं प्राणिक ।
शारीरिक स्तर पर स्नायविक असन्तुलन या स्नायविक सम्बन्ध विच्छेद , जो किसी अन्य बीमारी के कारण , अथवा गिरने से या चोट लगने के कारण रीढ़ की अंतिम सिरे की हड्डी खिसकने या जाने के कारण हो सकता है । मधुमेह से या उच्च रक्तचाप की ओषधियों के दुष्प्रभाव के फलस्वरूप भी नपुंसकता हो सकती है ।
प्रारम्भिक जीवन में , विशेषत : किशोरावस्था में जब शरीर और मन लैंगिक अभिव्यक्तिकरण के लिए परिवर्तित हो रहा होता है , उस समय उसे यदि कोई मानसिक आघात लगता है जिससे उसके अचेतन मन में भय , कुंठा , शर्म या अपूर्णता का भाव बैठ जाये तो वह आगे चल कर काम क्रीड़ा के प्रति अरुचि या नपुंसकता का रूप धारण कर लेता है ।
नपुंसकता का उपचार
ऐसी अवस्था में योग निद्रा जैसी शिथिलीकरण की प्रक्रिया समस्या को समूल उखाड़ सकती है ।
अक्सर इस समस्या से ग्रस्त लोगों के निम्न अंगों के क्षेत्रों में प्राण शक्ति के प्रवाह में तथा सम्बन्धित चक्रों ( मूलाधार तथा स्वाधिष्ठान ) के ऊर्जा क्षेत्र में अवरोध एवं असन्तुलन पाये जाते हैं । यदि वे अवरोध अत्यधिक हो तो निम्न अंगों और दोनों पैरों में लकवा भी मार सकता है ।
प्राण शक्ति के प्रवाहावरोध उन अभ्यासों से दूर किये जा सकते हैं जो श्रोणि प्रदेश के अंगों की मालिश कर उन्हें पुनर्जीवित कर सकें । इन आसनों का विवरण निचे दिया गया है । ध्यान एवं योगनिद्रा के अलावा इन आसनों , प्राणायामों तथा बन्धों को नियमित रूप से करना चाहिए , तभी लाभ होंगे।
नपुंसकता एवं संतानहीनता (अप्रजायिता) का यौगिक उपचार
नपुंसकता के ईलाज के लिए पति और पत्नी के मध्य पारस्परिक सहभागिता की भावना होनी चाहिए। दोनों का आपसी सहयोग बड़ा ही महत्व रखता है।
कही बार टेस्ट करवाने के बाद भी यह पता नही चल पाता है कि वास्तविक कारण क्या है। दोनों के आंतरिक संबधो में कही ना कही कुछ अपूर्णता रह ही जाती है। इसलिए पति एवं पत्नी दोनों लोगो को योग अभ्यास करने की सलाह दी जाती है।
नपुंसकता के लिए योग
1. सूर्य नमस्कार – प्रतिदिन प्रातः 12 चक्र तक अभ्यास करें ।
2. आसन – शुरुआत पवनमुक्तासन भाग । एवं भाग 2 को सिद्ध करने से करें ।
तत्पश्चात् शक्ति बन्ध समूह के आसन , और इसके । से 2 महीने के बाद निम्नलिखित मुख्य आसनों को शुरू करें – वज्रासन समूह – विशेषत : शशांक भुजंगासन , मार्जारि आसन , सुप्त वज्रासन , उष्ट्रासन और भद्रासन ।
पीछे एवं सामने झुकने वाले आसन– सर्वांगासन , हलासन , द्रुत हलासन , मत्स्यासन , द्विपाद कंधरासन , कंधरासन , हनुमानासन एवं ब्रह्मचर्यासन ।
इन सभी आसनों में से शक्ति बन्ध , वज्रासन समूह , भुजंगासन , पश्चिमोत्तानासन , सर्वांगासन और ब्रह्मचर्यासन सबसे लाभदायक हैं । से अक्सर जुड़े होते हैं । ब्रह्मचर्यासन से काम ऊर्जा का प्रवाह सुचारु बनता है ।
सर्वांगासन से भय और कुंठा दूर होती है , जो नपुंसकता की समस्या । बहिर्कुम्भक में जालंधर , मूल और उड्डियान बन्धों का अभ्यास
3. प्राणायाम – नाड़ी शोधन एवं भस्त्रिका प्राणायाम अन्तरंग एवं बहिर्कुम्भक के साथ । तथा । अंतकुम्भक में जालंधर एवं मूलबन्ध का अभ्यास जोड़ देना चाहिए । सूर्य भेद प्राणायाम 10 चक्र तक । संध्या के समय सूर्य की रोशनी में प्राणायाम करने से विशेष लाभ मिलता है ।
4. मुद्रा एवं बन्ध – पाशिनी मुद्रा एवं योगमुद्रा । मूलबन्ध का अभ्यास दिन में 30-30 बार करनी चाहिए । इन मुद्राओं के अभ्यास ।